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Tuesday 31 July 2018

Yoganand's Fraud

        Yoganand's Fraud

जिस मंदिर में ठहरे थे, उसके अहाते में सवेरे कुछ दर्शनार्थी तथा प्रश्नार्थी तब तक इधर-उधर टहलते रहते थे, जब तक स्वामीजी का बुलावा नहीं आता। दो-दो, चार-चार परिचित लोगों के गुट योगानंदजी की प्रशंसा के पुल बाँधते रहते कि वे भूत-भविष्य-वर्तमान कितना अचूक बताते हैं। कोई संदेह व्यक्त करता, तब उसका समाधान करने की जिद पकड़कर अन्य भक्त लोग उनके अचूक भविष्य कथन के उदाहरण नमक-मिर्च लगाकर बखानते। स्वयं योगानंद कभी कीर्तन द्वारा अथवा व्यक्तिगत संवादों से धार्मिक उपदेश नहीं दिया करते थे। वे प्रायः किसी भी संबंध में किसी से भी बातचीत नहीं किया करते थे। सिर्फ जिनके मन में भूत-भविष्य देखने की इच्छा हो जाती, उन्हें ही शिष्य द्वारा एकांत में उनके कमरे में बुलाया जाता। उधर महंतजी कुछ चुनिंदा प्रश्न पूछा करते, और सुनते। फिर जलादर्श नामक एक तांत्रिक यंत्र सामने रखा जाता और महंतजी वही कहते जो प्रत्यक्ष रूप में उस यंत्र में उनकी दिव्य दृष्टि को दिखाई देता। किसी के सच-झूठ प्रमाणित करने के प्रयासों से वे विवादों के किसी पचड़े में नहीं पड़ते। ‘प्रभु ने बताया सो मैंने कह दिया। सत्य-मिथ्या प्रभु का अधिकार। मैं तो बस उसके शब्दों की ध्वनि हूँ।’ यही ठोस उत्तर योगानंद दिया करते और उस शिष्य द्वारा उस प्रश्नार्थी को बाहर पहुँचा दिया जाता। महंतजी किसी से भी उस जलादर्श स्थित भूत-भविष्य कथन के बदले एक धेला भी नहीं लिया करते—इस अपरिग्रही निर्लोभतावश उनकी दी हुई जानकारी पर सश्रद्ध जनों को ही नहीं, अपितु अर्धसंदेही लोगों की भी अधिक ही श्रद्धा होती। महंतजी वाक्संयम का पालन करते, उससे उनके मुख से एकाध जो गूढ़ शब्द निकलता, उसका स्पष्टीकरण अपने मतानुसार करने के लिए हर कोई स्वतंत्र हुआ करता। कीर्तन में स्वयं तल्लीन होकर उन्मुक्त भाव से सुरीली आवाज में बार-बार दोहराकर भजन गाते। उस समय उस भाव-भक्ति-भीने अभिनय से उनकी धार्मिक सिद्धि की महत्ता श्रोतावृंद को ज्ञात होती, लेकिन कीर्तन द्वारा भी वे भजन से अलग कोई प्रवचन नहीं देते। ‘भजन संतों का। संतों से अधिक भला मैं क्या कह सकता हूँ!’ इस वाक्य का प्रसंगवश उच्चारण करके वे मुँह में ठेपी रखते।

Where is Malti?

         Where is Malti?

रमा देवी मालती के संग जब भजन स्थल पर पहुँचीं तब भजन का रंग खूब जमा हुआ प्रतीत हो रहा था। उस घाट पर इधर-उधर दूर-दूर तक लोगों की रेलपेल, भीड़-भड़क्का हो गया था। दिंडी भजन2 की तरह बड़े-बड़े झाँझरों के साथ पचास-पचहत्तर गोसाईं साधु-संत योगानंद को घेरकर संकीर्तन कर रहे थे। दस-बीस प्रमुख शिष्य पखावज, मृदंग, वीणा, झाँझर प्रभृति वाद्य-यंत्रों के साथ, ताल-सुर ठीक-ठाक पकड़कर योगी महंत के बिलकुल निकट तैयार बैठे हैं और बीचोबीच कभी बैठे-बैठे तो कभी भक्ति के आवेश में उठकर योगानंदजी ऊँची, बुलंद आवाज तथा तन्मय सुरों में भजन गा रहे हैं। सुदूर फैली हुई उस भीड़ में से ठेला-ठेली करके भीतर जाने की गुंजाइश ही नहीं थी। परंतु अन्नपूर्णा देवी के अनुरोध पर पहले से ही उन्हें महंत के मंदिर के आरक्षित स्थान पर बैठाने के लिए एक शिष्य नियुक्त किया गया था। उस शिष्य ने राह में ही उन्हें देखकर योगानंदजी की आज्ञानुसार तीनों को वहाँ लाकर बैठाया। इधर भजन अपनी चरम सीमा पर था। तुलसीदासजी के एक पद के चरण उन सैकड़ों भजनियों के सैकड़ों कंठों से परिपुष्ट बुलंद स्वर में गूँजते रहे— तुलसी मगन भए। हरिगुणगान में॥ मगन भए। हरिगुणगान में॥ध्रु.॥ कोई चढ़े हाथी घोड़ा पालकी सजा के॥ साधु चले पैंया-पैंया चिंटियाँ बचा के॥ मगन भए। हरिगुणगान में॥ तुलसी.॥ झाँझर की झनझनाहट से लहू की बूँद-बूँद थरथराने लगी। सारा समाज भक्ति रस में डूबा हुआ था, सराबोर। हरिनाम के सिवा अन्य कोई भी ध्वनि वहाँ सुनाई नहीं दे रही थी। परंतु क्या यह कहा जा सकता है कि एक-दूसरे को सुनाई नहीं दे रही थी या जिस-तिस को भी सुनाई नहीं दे रही थी—इस संबंध में भला कौन कह सकता है! इतने में उस शतकंठ निनादी स्वर को कुछ नीचे उतारकर योगानंदजी अकेले ही इतनी तन्मयता से गाने लगे कि शिष्यादि भजनी लोगों ने झाँझर को, जो सिर्फ हल्ला-गुल्ला, गुल-गपाड़ा ही कर रहा था, बंद करके करतालों के साथ गाना प्रारंभ किया। ‘तुलसी मगन भए। हरिगुणगान में’ यह चरण उलट-पुलटकर मधुर तथा धीमे स्वरों में गाते-गाते योगानंद उठकर खड़े हो गए। उस पद का अर्थ योगानंद स्पष्ट नहीं कर रहे थे। लेकिन जिन्हें उसका बोध हो रहा था वे उस भजन का अर्थ सुन रहे थे, जैसे उन्हें गागर में सागर मिला हो। इस जीवन की साधना हर कोई अपनी रुचि के अनुसार कर रहा है—हर कोई आनंद और सुख का पीछा कर रहा है—कोई भोग द्वारा, कोई योग द्वारा। जैसी जिसकी और जितनी जिसके मन की उन्नति वैसी उसकी रुचि—‘स्वभावो मूर्ध्नितिष्ठते।’ इसीलिए भई, बाह्य साधनों के विवादों का पचड़ा किसलिए खड़ा किया जाए? तुम उसी में रम जाओ जिसमें तुम्हें आनंद और सुख मिले, वे उसमें रमे जिसमें उन्हें आनंद और सुख मिले। मुझसे पूछा जाए तो ‘तुलसी मगन भए। हरिगुणगान में। हरिगुणगान में।’ कुछ लोग चंदन के ऊँचे पर्यंक पर गुदगुदी मखमली सेज पर लेटने के लिए एड़ी-चोटी एक कर रहे हैं—उन्हें उसमें आनंद आता है। परंतु कुछ लोग अपने पास पलंग होते हुए भी, उसे त्यागकर, साथ-साथ कामी पत्नी को भी त्यागकर बुद्ध सदृश बोधिवृक्ष के नीचे खुले स्थान पर सिर्फ धरती पर सोते हैं—उन्हें वहीं पर गहरी नींद आती है। गाढ़ी निद्रा ही उद्दिष्ट हो तो उसे वहीं सोना उचित है, जहाँ वह चैन की नींद सो सके। भई, इस विवाद की आवश्यकता ही क्या है कि मेरा ही साधन तुम्हें भी इस्तेमाल करना होगा! कुछ हाथी पर तो कुछ घोड़े पर और कुछ पालकी में शान से इतरा रहे हैं। भई, उन्हें उसी में आनंद आ रहा है—उनका वही स्वभाव है। लेकिन इस साधु को देखो, उसे हाथी पर सवार होना उतना ही दुःखद प्रतीत हो रहा है जितना सूली पर चढ़ना। इस मुँहजोरी से कि पालकी में स्वयं बैठें और उसे कोई अन्य ढोए—उसे इतना लज्जाप्रद प्रतीत होता है, पालकी के स्पर्श मात्र से उसे ऐसा दुःख होता है जैसे किसी धधकते अंगारे से हाथ जल रहा हो। इसीलिए वह साधु पैदल चलता है और पैदल चलते-चलते भी इस भय से कि कीड़े-मकोड़े या चींटियाँ उसके पैरों तले कुचलकर मर तो नहीं जाएँगी, दयाभाव से उन्हें बचाने के लिए देख-देखकर डग भरता है, उसी में उसे सच्चा सुख मिलता है। कोई चढ़े हाथी घोड़ा पालकी सजा के। साधु चले पैंया-पैंया चिंटियाँ बचा के॥ पैंया पैंया। चिंटियाँ बचा के॥ उस समय सभी को यही अहसास हुआ कि क्या यह वही साधु तो नहीं जिसका तुलसीदासजी के पद में उल्लेख किया गया है। क्योंकि योगानंद की एक खास आदत थी कि राह में, घाट में, हाट में कहीं पर भी हों, देख-देखकर एक-एक कदम तनिक ऊपर उठाकर उसे आगे बढ़ाते थे। यद्यपि वे इसी उद्देश्य से उन भजनों को इतनी तल्लीनता से तथा रसभीने स्वर में नहीं गा रहे थे कि उनका साधुत्व गोस्वामीजी के पद के इन चरणों द्वारा लोगों के मन पर अंकित हो, तथापि उसका परिणाम वही हुआ। हर कोई किसी के बिना बताए भी यह जान गया कि गोस्वामीजी के निकष पर योगानंदजी का साधुत्व कुंदन हो गया है। इस प्रकार के भजनोत्सव में आधी रात बीत चुकी। आरती के समय स्वामीजी का चरण स्पर्श करने के लिए लोगों की रेलपेल होने लगी। लोगों के झुंड घर वापस लौटने के लिए बाहर निकलने लगे। अब तो ऐसी ठेला-ठेली शुरू हो गई कि बस अंधेर मच गया। इतने में अन्नपूर्णा देवी, रमा देवी तथा मालती जहाँ से बाहर निकल रही थीं, उधर दस-पाँच लोगों में अचानक तू-तू, मैं-मैं होने लगी; गुत्थमगुत्था शुरू हो गई और बड़ा हंगामा खड़ा हो गया। यह बखेड़ा निपटाने के बहाने स्वामीजी के दस-पाँच शिष्य छडि़यों के साथ अंदर घुस गए। जो जिधर निकल गया वह वहीं ठेलता, ढकेलता चला गया। बीच में ठसाठस भीड़ ठुँसती गई। इस बिछोह में रमा देवी किधर गईं, अन्नपूर्णा देवी किधर और मालती कहाँ गायब हो गई, इस बात का एक-दूसरी को भी पता नहीं लग रहा था। इतने में स्वामीजी के एक शिष्य ने रमा देवी का, जो लगभग कुचली जाने से बौखलाई हुई थीं, हाथ पकड़कर उन्हें इस भीड़-भड़क्के से बाहर निकाला और बताया कि ‘स्वामीजी की आज्ञा से महिलाओं को विशेष तत्परतापूर्वक पहुँचाने के लिए हमें भेजा गया है। आप अपने घर चलिए।’ ‘‘लेकिन मेरी मालती! बताइए कहाँ है मेरी बिटिया?’’ बौखलाई सी, घबराई सी रमा देवी ने पूछा। उस शिष्य ने आनन-फानन उन्हें आगे-आगे ले जाकर ही बताया कि ‘सब लोगों को अपने-अपने घर पहुँचाया गया है। आप लोग आगे-आगे बढि़ए। बस।’ आधी राह तो भीड़ की ठेला-ठेली ही चल रही थी, उस भीड़ से शिष्य ने रमा देवी को लगभग खींचकर ही निकाला। ‘‘जाइए, अब सीधे घर चली जाइए। बाकी दोनों माताजी लोगों को पहले ही वहाँ पहुँचा दिया गया है।’’ इस प्रकार आश्वासन देते हुए वह शिष्य भीड़ की शिकार किसी अन्य अबला को बचाकर घर पहुँचाने के लिए चलता बना और भीड़ में खो गया। धड़कते दिल से रमा देवी जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाती अपने घर पहुँचीं। एक तरफ इस उपकार का स्मरण करते हुए कि स्वामीजी ने इतने दंगल में विशेष ध्यान रखकर महिलाओं को अपने-अपने घर पहुँचाया और दूसरी तरफ इस बात की चिंता करते-करते कि मालती द्वार पर ही मेरी प्रतीक्षा में बैठी होगी और बेचारी के होश उड़ गए होंगे, रमा देवी अपने घर के पास आ गईं। उन्होंने अँधेरे में उस बरामदे की ओर देखा। दरवाजे का ताला ज्यों-का-त्यों था। मालती या अन्य किसी की भी आहट नहीं मिल रही थी। मालती के आगे आने का कोई सुराग नहीं मिल रहा था। उन्हें ऐसा आभास होने लगा कि भजन-कीर्तन के समय जो धक्कम-धक्का हुआ था, उसमें कुचली गई मालती फूट-फूटकर रो रही है। ‘‘मालती, अरी ओ माला बिटिया...!’’ रमा देवी ने बड़ी कठिनाई के साथ न जाने किसलिए उस वीरान अँधेरे में दो बार पुकारा और तीसरी पुकार यों ही गले से निकल रही थी कि उनका गला भर आया, रुलाई फूट पड़ी और वे धम् से नीचे बैठ गईं। यह ध्यान होते हुए भी कि इधर ऐसा कोई नहीं है, जिससे वे बार-बार पूछ रही हैं, सिसक-सिसककर पूछती ही रहीं, ‘‘मेरी मालती कहाँ है जी? मेरी माला बिटिया आ गई!’’ वस्तुतः उस समय चित्त के इतना व्याकुल होने का कोई कारण नहीं था। स्वामीजी के शिष्य ने जल्दी-जल्दी, किंतु साफ-साफ बता दिया था कि ‘उन सभी को आगे पहुँचा दिया जा चुका है।’ उन्होंने सोचा, इधर नहीं तो हो सकता है अन्नपूर्णा देवी के घर उन दोनों को पहुँचा दिया गया हो। मैं भीड़ में अकेली फँस गई और वे दोनों साथ-साथ हो सकती हैं। नहीं, नहीं, अवश्य साथ ही होंगी। इसलिए इतने दूर तक हंगामे में मुझे ढूँढ़ते-ढूँढ़ते आने की बजाय वहीं से उन्हें अन्नपूर्णा देवी के घर पहुँचा दिया होगा जो इस घर से अधिक निकट है; अन्नपूर्णा देवी ने ही यह प्रार्थना की होगी। इस तरह यही विपरीत विचार धीरे-धीरे उन्हें सही लगने लगा। यह सोचकर कि स्वयं उधर जाकर मालती को देख लें, वे दो-चार बार सड़क पर आ गईं। ‘पर मैं उधर चली गई और मालती इधर आ गई तो! फिर वह अकेली रहेगी। मेरे यहाँ न मिलने पर शायद मुझे ढूँढ़ने वह वापस लौटेगी। दूर का रास्ता, रात का तीसरा पहर, घना अँधेरा। जाएँ या न जाएँ।’ इस तरह उलट-पुलट विवंचना, मिथ्या आशा दिखा रही थी कि न जाने कब उन्हें झपकी-सी आ गई। चौंककर वे उठ गईं। देखा तो बगल में मालती का बिस्तर खाली ही था, यह बिस्तर कभी भी इस तरह सूना-सूना नहीं दिखाई दिया था। प्रतिदिन सुबह आँख खुलते ही उस बिस्तर पर मीठी नींद में सोई हुई मालती की अस्त-व्यस्त लटें सँवारकर उसका मुख प्यार से सहलाकर, उसे कंबल ओढ़ाकर वे प्रसन्न चित्त के साथ ‘सडा सम्मार्जन’3, झाड़ू-बुहार आदि नित्यकर्मों में जुटतीं—यही रमा देवी का नित्य का निश्चित क्रम था। आज उस बिस्तर पर वह प्यारा-सा दुलारा मुखड़ा नहीं दिख रहा था। उनका कलेजा सन्न हो गया—काटो तो बदन में खून नहीं। बुरे विचार मन में उमड़-उमड़कर बाहर आने लगे। परंतु उनका मन में भी उच्चारण न करती हुई रमा देवी तपाक् से उठ खड़ी हुईं और सीधी मालती को ढूँढ़ते अन्नपूर्णा देवी के यहाँ चल पड़ीं। लेकिन थोड़ी दूर चलने पर उन्हें दिखाई दिया कि अन्नपूर्णा देवी इधर ही आ रही हैं। अकेली...। घबराती हुई रमा देवी ने पूछा, ‘‘यह क्या? मालती कहाँ है?’’ हक्की-बक्की सी अन्नपूर्णा देवी ने कहा, ‘‘आँ, स्वामीजी के एक शिष्य ने मुझे बताया कि मालती तो आपके साथ चली गई!’’ ‘‘हाय राम! मेरी मालो! किधर गई होगी वह?’’ रुँधे कंठ में अटके हुए ऐसे ही कुछ शब्द कहकर रमा देवी किसी नन्हे बालक के समान बिलख-बिलखकर रोने लगीं। अन्नपूर्णा देवी उनसे अधिक धैर्यशाली महिला थीं अथवा उनका धीरज इसलिए ज्यों-का-त्यों रहा होगा कि उनकी इकलौती कोखजायी सयानी बेटी नहीं खो गई थी। रमा देवी को सहारा देते हुए उन्होंने कहा, ‘‘इस तरह मन छोटा क्यों करती हैं आप? हिम्मत से काम लीजिए। आप और हमारी जैसी सभी स्त्रियों को जिस तरह स्वामीजी ने सोच-समझकर आदमी भेजकर उस हुल्लड़ से बचाया, उसी तरह मालती को भी बचाकर किसी सुरक्षित स्थान पर रखा होगा। चलिए, पहले स्वामीजी के पास चलते हैं। कुछ भी हो—मालती उधर ही सुरक्षित है—चलिए।’’ रमा देवी को इस तरह ढाढ़स बँधाकर अन्नपूर्णा देवी स्वामीजी के मंदिर की ओर चल तो पड़ीं, परंतु उनका मन भी इसी धुकधुकी में डाँवाडोल हो रहा था कि क्या होगा, क्या नहीं। 

Malti

                                                                      Malti

‘‘अम्मा री, एक बार सुनाओ न! हम इतनी सारी मीठी-मीठी ओवियाँ सुना रहे हैं तुम्हें, पर तुम हो कि मुझे एक भी नहीं सुना रही हो। उँह...!’’ मालती ने अपने हिंडोले को एक पेंग मारते हुए बड़े लाड़ से रमा देवी को अनुरोध भरा उलाहना दिया। ‘‘बेटी, भला एक ही क्यों? लाखों ओवियाँ गाऊँगी अपनी लाड़ली के लिए। परंतु अब तेरी अम्मा के स्वर में तेरी जैसी मिठास नहीं रही। बेटी! केले के बकले के धागे में गेंदे के फूल भले ही पिरोए जाएँ, जूही के नाजुक, कोमल फूलों की माला पिरोने के लिए नरम-नरम, रेशमी मुलायम धागा ही चाहिए, अन्यथा माला के फूल मसले जाएँगे। वे प्यारी-प्यारी ओवियाँ मिश्री की डली जैसे तेरे मीठे स्वर में जब गाई जाती हैं तब वे और भी मधुर, दुलारी प्रतीत होती हैं। अतः ऐसी राजदुलारी, मधुर ओवियाँ तुम बेटियाँ गाओ और हम माताएँ उन्हें प्रेम से सुनें। यदि मैं गीत गाने लगूँ न, तो इस गीत की मिठास गल जाएगी और मेरी इस चिरकती-दरकती आवाज पर—जो किसी फटे सितार की तरह फटी-सी लग रही है, तुम जी भरकर हँसोगी।’’ ‘‘भई, आने दो हँसी। आनंद होगा, तभी तो हँसी आएगी न! मेरा मन बहलाने की खातिर तो तुम्हें दो-चार ओवियाँ सुनानी ही पड़ेंगी। हाँ, कहे दे रही हूँ।’’ ‘‘तुम भगवान् के लिए ओवियाँ और स्तोत्र-पठन घंटों-घंटों करती रहती हो, भला तब नहीं तुम्हारी आवाज फटती! परंतु मुझपर रची हुईं दो-चार ओवियाँ सुनाते ही आनन-फानन सितार चिरकने लगती है। यदि माताएँ बेटियों की ओवियाँ सिर्फ सुनती ही रहीं तो उन ओवियों की रचना भला क्यों की जाती जो माताएँ गाती हैं! कितनी सारी ममता भरी ओवियाँ हैं जो माताएँ गाती हैं! मुझे भी कुछ-कुछ कंठस्थ हैं।’’ ‘‘तो फिर जब तुम माँ बनोगी न तब सुनाना अपने लाड़ले को।’’ कहते हुए रमा देवी खिलखिलाकर हँस पड़ीं। लज्जा से झेंपती हुई मालती ने रूठे स्वर में कहा, ‘‘भई, मैं सुनाऊँ या न सुनाऊँ, तुम मेरे लिए एक मधुर-सी ओवी गाओगी न!’’ और तुरंत माँ से लिपटकर उनकी ठोड़ी से अपने नरम-नरम, नन्हें-नन्हें होंठ सटाकर वह किशोरी माँ की चिरौरियाँ करने लगीं। ‘‘यह क्या अम्मा? तुम मेरी माँ हो न! फिर तुम नहीं तो भला और कौन गाएगा मेरे लिए माँ की दुलार भरी ओवी!’’ ‘तुम मेरी माँ हो न!’ अपनी इकलौती बिटिया के ये स्नेहसिक्त बोल सुनते ही रमा देवी के हृदय में ममता के स्रोत इस तरह ठाठें मारने लगे कि उनकी तीव्र इच्छा हुई कि किसी दूध-पीते बच्चे की तरह अपनी बेटी का सुंदर-सलोना मुखड़ा अपने सीने से भींच लें। उसे जी भरकर चूमने के लिए उनके होंठ मचलने लगे। परंतु माँ की ममता जितनी उत्कट होती है, उतनी ही सयानी हो रही अपनी बेटी के साथ व्यवहार करते समय संकोची भी होती है। मालती के कपोलों से सटा हुआ मुख हटाते हुए उसकी माँ ने यौवन की दहलीज पर खड़ी अपनी बेटी का बदन पल भर के लिए दोनों हाथों से दबाया और हौले से उसे पीछे हटाकर मालती को आश्वस्त किया। ‘‘अच्छा बाबा, चल तुझे सुनाती हूँ कुछ गीत। बस, सिर्फ दो या तीन! बस! बोलो मंजूर!’’ ‘‘हाँ जी हाँ। अब आएगा मजा।’’ उमंग से भरपूर स्वर में कहकर मालती ने झूले को धरती की ओर से टखनों के बल पर ठेला और पेंग के ऊपर पेंग ली। ‘‘अरे यह क्या? गाओ भी। किसी कामचोर गायक की तरह ताल-सुर लगाने में ही आधी रात गँवा रही हो।’’ मालती के इस तरह उलाहना देने पर रमा देवी वही ओवी गाने लगीं जो होंठों पर आई— अगे रत्नांचिया खाणी। नको मिखूं ऐट मोठी। बघ माझ्याही ये पोटीं। रत्न ‘माला’॥१॥ जाता येता राजकुँवरा। नको पाहूं लोभूनिया। दृष्ट पडेल माझीया। मालतीला॥२॥ देते माझं पुण्य सारं। सात जन्मवेरी। माझ्या रक्षावे श्रीहरी। लेकुरा या॥३॥ पुरोनी उरू द्यावी। जन्मभरी नारायणा। कन्या माझी सुलक्षणा। एकूलती॥४॥ [अर्थ : (१) अरी ओ रत्नों की खानि! इस तरह मत इतराना। देखो तो सही, मेरी कोख से तो इस सुंदर रत्न ‘माला’ ने जन्म लिया है। (२) हे राजकुमार! आते-जाते इस तरह ललचाई दृष्टि से मत देखो, मेरी मालती को नजर लग जाएगी। (३) मेरे सात जन्मों का सारा पुण्य संचय, हे श्रीहरि! मैं तुम्हें अर्पित करती हूँ, मेरी मालती की रक्षा करो! (४) हे नारायण! मेरी इकलौती सुलक्षणी कन्या मुझे आजन्म मिले।] गाने की धुन में ‘इकलौती’ शब्द का उच्चारण करते ही रमा देवी को यों लगा जैसे किसी बिच्छू ने डंक मारा है। किसी तीव्र दुःख की स्मृति से उनका मन कसमसाने लगा। ऐसे हर्षोल्लास की घड़ी में उनकी बेटी को भी यह कसक न हो, वह भी उदास न हो, इसलिए रमा देवी ने अपने चेहरे पर उदासी का साया तक नहीं उभरने दिया; फिर भी उनके कंठ में गीत अटक-सा गया। मालती ने सोचा, गाते-गाते माँ की साँस फूल जाने से वह अचानक चुप हो गई हैं। माँ को तनिक विश्राम मिले और उनकी गाने की जो मधुर धुन बँध गई है वह टूट न जाए, इसलिए यह समझकर कि अब उसकी बारी है, वह अपनी अगली ओवियाँ गाने लगी। उसकी माँ ने उसके लिए ममता से लबालब भरी जो ओवियाँ गाई थीं, उनकी मिठास से भरपूर हर शब्द के साथ उसके दिल में हर्ष भरी गुदगुदियाँ हो रही थीं। अपने साजन की प्रेमपूर्ण आराधना की आस लगने से पहले लड़कियों को माँ के प्यार-दुलार भरे कौतुक में जितनी रुचि होती है, उतनी अन्य किसी में भी नहीं। संध्या की वेला में पश्चिम की ओर के सायबान पर, जिसका सामनेवाला बाजू खुला है—हिंडोले पर बैठी वह सुंदर-सलोनी, छरहरे बदन की किशोरी अपने सुरीले गीत की मधुरता का स्वयं ही आस्वाद लेती हुई ऊँची पेंगें भरने लगी। हिंडोला जब एक तरफ की ऊँचाई से नीचे उतरता तब हवा के झोंके से उसका आँचल फड़फड़ाता हुआ लहराता रहता। तब ऐसा प्रतीत होता कि संध्या समय सुंदर पक्षियों का झुंड अपने सुदूर नीड़ की ओर उड़ रहा है और उस झुंड में से एक पखेरू पीछे रह गया है, जो पंख फैलाकर आलाप के पीछे आलाप छेड़ते हुए पता नहीं कब हर्षोल्लास के आकाश में उड़ जाएगा। माउलीची माया। न ये आणिकाला। पोवळया माणिकाला। रंग चढे॥१॥ न ये आणिकाला। माया ही माउलीची। छाया देवाच्या दयेची। भूमीवरी॥२॥ माउलीची माया। कन्या-पुत्रांत वांटली। वाट्या प्रत्येकाच्या तरी। सारीचि ये॥३॥ जीवाला देते जीव। जीव देईन आपूला। चाफा कशाने सूकला। भाई राजा॥४॥ माझं ग आयुष्य। कमी करोनी मारुती। घाल शंभर पूरतीं। भाई राजा॥५॥ [अर्थ : (१) माँ की ममता की बराबरी कोई नहीं कर सकता। मूँगा-माणिक रत्नों पर रंग छा जाता है। (२) माँ की ममता की तुलना किसी से भी नहीं हो सकती। वह ईश्वर की दया की भूमि पर बिखरी हुई छाया है। (३) माँ की ममता कन्या-पुत्रों में बाँटने पर भी सभी के हिस्से में संपूर्ण रूप में ही आती है। (४) हे भाई राजा! मैं आपके लिए अपनी जान दे दूँगी! यह चंपा का फूल क्यों सूख गया? (५) हे बजरंगबली! मेरी आयु कम करके मेरे राजा भैया के सौ साल पूरे करो!] गीतों के बहाव में जो मुँह में आया, मालती वही ओवी गाती जा रही थी। पहली ओवियाँ उसकी अपने मन की बोली में रची हुई थीं। अपनी माँ से उसे जो लाड़-दुलार भरी ममता थी, उन्हीं गीतों को चुन-चुनकर वह अपने कंठ की शहनाई द्वारा गा रही थी। परंतु अगली ओवियाँ अर्थ के लिए चुनकर नहीं गाई गई थीं। वह वैसे ही गाती गई, जैसे कोई मराठी गायक हिंदी पदों के अर्थ पर खास गौर न करते हुए उस गीत की धुन के ही कारण वह पद गाता है। परंतु उसकी माँ का ध्यान उन ओवियों के अर्थ की ओर भी था, अतः मालती गाने के बहाव में जब वे ओवियाँ गाती गई, जो उसके भाई राजा पर लागू होती थीं, तब उसकी माता की छाती दुःख से रुँध गई और उन्हें डर लगने लगा कि अब रोई, तब रोई। उनके दुःख का साया मालती के उस हँसते-खेलते हर्षोल्लास पर पड़ने से वह स्याह न हो, इसलिए रमा देवी ने मालती की ओवियाँ, जो अब असहनीय हो रही थीं, बंद करने के लिए उसे बीच में ही टोका, ‘‘माला, बेटी अब रुक जा। भई, मुझे तो चक्कर-सा आने लगा है। कितनी ऊँची-ऊँची पेंगें भर रही हो।’’ ऐसा ही कुछ बहाना बनाकर माँ ने अपने पैरों का जोर देकर हिंडोला रोका। उसके साथ ही न केवल मालती ही झूले से नीचे उतरी, उसका मन भी, जो ऊँचे-ऊँचे आलापों के झोंकों पर सवार होकर मदहोश हो गया था, उन गीतों के हिंडोले से नीचे उतरकर होश में आ गया। उसने देखा तो माँ के नयन आँसुओं से भीगे हुए थे। दुःखावेग की तीव्र स्मृति से चेहरे का रंग पीला पड़ गया था। मालती को तुरंत स्मरण हो गया कि अरे हाँ, अपने लापता भैया की स्मृति से अम्मा दुःखी हो गई है। अपने मुख से सहजतापूर्वक निकली हुई ओवियों को, जिनमें भैया का वर्णन है, सुनकर ही अम्मा का मन विह्वल हो उठा है। उस हादसे को इतने साल बीतने के बाद भी उसकी माँ को अपने गुमशुदा बेटे की स्मृति कभी-कभी इस तरह प्रसंगवशात् असहनीय होती थी, जैसे दुःख का ताजा घाव हो और फिर वह ममता की मूरत माता फूट-फूटकर रोया करती। मालती जानती थी, उस समय अम्मा को किस तरह समझाना है। वह यह भी जानती थी कि कौन सा इलाज है, जो माँ के दुःख को टाल तो नहीं सकता पर अचेत और संवेदनाशून्य बना सकता है। उसने झट से माँ की गोद पर अपना सिर रख दिया। उसके साथ अपने आप उसके चेहरे का रंग उड़ गया। उसकी आँखें भर आईं और अपनी आदत के अनुसार अपना चेहरा माँ की ठोड़ी से सटाकर अकुलाते हुए उसने कहा, ‘‘नहीं, ऐसे दिल छोटा नहीं करते, अम्मा! मैं तो तुम्हारे मन को रिझाने के लिए गा रही थी और तुम्हारे दुःख का घाव ताजा हो गया। हाय, न जाने ये निगोड़ी ओवियाँ मुझे कैसे सूझीं?’’ मालती के मन को अपनी गलती के अहसास की चुभन इतनी तीव्रता से हो रही थी कि उसकी माँ से अपने पिछले दुःख की अपेक्षा अपनी रोती-सिसकती बिटिया का वर्तमान दुःख देखा नहीं गया और वह झट से अपना दुखड़ा समेटकर मालती को ढाढ़स बँधाने लगीं। ‘‘चल, पगली कहीं की! अरी बावली, तुम्हारे गीतों के कारण नहीं, मैं ही ओवी गाते-गाते ‘मेरा बबुआ’ कह गई न, उसी का मुझे दुःख हुआ। भगवान् ने मेरी झोली में दो-दो बच्चे डाले थे, पर हाय! नियति ने एक को मुझसे छीनकर बस एक ही मेरे लिए बाकी रखा—यही कसक मुझे अचानक चुभ गई। मत रो बेटी, मत रो। चुप हो जा। तुमने मेरा जख्म हरा नहीं किया बल्कि तुम्हारे खिले-खिले मुख पर थिरकती सुखद मुसकान ही वह रसायन है जो इस दुःख को तनिक हलका कर सके। जो बीत गई सो बीत गई, वह वापस थोड़े आनेवाला है! तेरा भाई तुझपर इतनी जान छिड़कता था कि यदि मैंने तुझे उसके वियोग के दुःख से भी रुलाया तो भी वह मुझसे नाराज होगा। उसकी आत्मा जहाँ कहीं भी होगी, उसी स्थान पर तड़पेगी। तुमने तो उसका स्थान ले ही लिया है। न, न, चुप हो जा। अरी हाँ, आज उस नए आए हुए साधु महाराज का भजन सुनने चलेंगे न! चल उठ, मैं चूल्हा जलाती हूँ, तुम झाड़-बुहारकर खाना बनाने की तैयारी करो। भोजन आदि से निपटते ही नायडू बहनजी बुलाने के लिए आ जाएँगी।’’ माँ-बेटी भीतर चली गईं। रमा देवी ने यह एक छोटा सा शानदार मकान पिछले महीने ही मथुरा में रहने के लिए स्वतंत्र रूप से किराये पर लिया था। रमा देवी के पति का दो बच्चों के पिता होने के बाद अचानक स्वर्गवास हो गया। उनके पति ने रमा देवी के लिए इतना पैसा और जेवरात छोड़े थे, जिससे उनकी दाल-रोटी आराम से चल सके। उसी के सहारे कुछ साल नागपुर के पास अपने गाँव में रमा देवी ने अपने दोनों बच्चों को पाला-पोसा था। आगे चलकर उनका बेटा जब फौज में भरती हो गया तब उनकी बेटी मालती ही उनके पास बची थी। दो-चार वर्षों में ही हिंदुस्थान से बाहर अंग्रेजों से छिड़े किसी युद्ध में भारतीय फौज भेजी गई। उसमें रमा देवी के पुत्र को भी जाना पड़ा। लेकिन वहाँ जाने के बाद वह लापता हो गया। बड़ी दौड़-धूप, कोशिशों के बाद रमा देवी को अफसरों से पता चला कि वह फौजी कुछ कारणवश अफसरों से लड़-झगड़कर फरार हो गया और हो सकता है, दुश्मनों के हाथों मारा गया हो। यह हादसा हुए पाँच-छह साल बीच चुके थे। इस बात को कि रमा देवी का पुत्र फौज में भरती हो गया था और गुजर चुका है, उनके गाँववालों को इतना विश्वास हो चुका था कि अब इस बात को सभी भूल चुके हैं। परंतु भला रमा देवी यह पूरी तरह से कैसे भूल सकेंगी! उन्हें अपने पुत्र का विस्मरण नहीं हुआ। इतना ही नहीं, कभी-कभी तो उन्हें इस बात पर विश्वास ही नहीं होता था कि उनका पुत्र मारा गया है और अब इस लोक में वह फिर कभी नहीं मिलेगा। युद्ध में मारे गए सैनिकों के निकटवर्तियों की प्रायः इसी प्रकार की मनोवृत्ति पाई जाती है। आज भी उन्हें यह बात सच प्रतीत नहीं होती थी कि उनका पुत्र मारा गया है। कोई भी आशा बाकी नहीं रही थी, फिर भी संदेह दूर नहीं हो रहा था। इन शब्दों का उच्चारण करना भी उन्हें अप्रिय-सा लगता था कि उनका पुत्र दूर देश में युद्ध में मारा गया। यदि कभी इस बात को छेड़ने का प्रसंग आ भी जाता तो बस वे इतना ही कहतीं कि मेरा बड़ा बेटा युद्ध में लापता हो गया है। पुत्र की मृत्यु का समाचार पाने के बाद दुःख की मारी वह हतभागिनी नारी अब अपनी इकलौती बेटी के प्यार के सहारे ही जी रही थी। वही उसकी आँख की पुतली थी। कंचन का कौर खिलाकर पाला था उसने अपनी लाड़ली को। जैसे-जैसे वह बड़ी होती गई वैसे-वैसे ही वह चंद्रकलावत् अधिकाधिक सुंदर दिखने लगी; जैसे माथे चाँद, ठोढ़ी तारा। उसके प्यार भरे, चपल किंतु सुशील स्वभाव, सलीकेदार बोलचाल में कुछ ऐसी सुघड़ता और रमणीयता थी, मानो उसके मुख से फूल झड़ते हों। न केवल उसकी माँ, बल्कि जो भी उसे देखता, उसके नेत्रों और मन को चतुर्थी की चंद्रकला के दर्शन का आनंद एवं सुख प्राप्त होता। सुंदर मोतियों के दर्शन से इस बात का जिस तरह सहज अहसास होता है कि यह किसी शोभनीय अलंकार की सामग्री है, उसी तरह इस किशोरी को देखने के बाद भी ऐसा ही लगता कि किसी-न-किसी रमणीय, मंगल तथा सुखमय जीवन के लिए इसका निर्माण हुआ है। अब वह चौदहवाँ वर्ष पार कर चुकी थी। गुलाब चटक रहा था। उसकी अम्मा के मन में उसके भविष्य के सिलसिले में सुनहरी आशाओं तथा आकांक्षाओं का एक मनोहारी उद्यान खिलने लगा था। रमा देवी की एक बहुत पुरानी सखी परिचारिका श्रीमती अन्नपूर्णा देवी नायडू आजकल मथुरा में नौकरी कर रही थीं। उन्हीं के अनुरोध तथा रमा देवी के धार्मिक मन में तीर्थयात्रा की रुचि होने के कारण वे महीना-पंद्रह दिनों के लिए मालती के साथ मथुरा आई हुई थीं। मथुरा के दर्शनीय स्थलों, मंदिरों तथा साधु-संतों के दर्शनार्थ उनकी प्रमुख पुरोहित एवं मार्गदर्शक अन्नपूर्णा देवी हुआ करतीं। उनकी भी साधु-संतों में बड़ी रुचि थी। किसी भी नए साधु के मथुरा आते ही उसका उपदेश सुनने तथा प्रसंगवश यथाशक्ति उसकी सेवा-टहल करने के लिए भी अन्नपूर्णा देवी सहसा नहीं चूकतीं। उनके घर के निकटवर्ती घाट पर ही पिछले महीने योगानंद नामक एक साधु अपने शिष्यों के साथ ठहरे थे। उन्हीं के पास आजकल अन्नपूर्णा देवी की भजन-पूजन तथा दर्शनार्थ आवाजाही जारी थी। सर्वत्र यही चर्चा थी कि उन योगानंद स्वामीजी के पास अतीत-भविष्य-वर्तमान जानने की दैवी शक्ति है। रात में उस साधु के मठ में भजन का उद्घोष होते ही उस संकीर्तन के रंग में सैकड़ों लोग तल्लीन होकर भक्तिभावपूर्वक नाचने लगते। योगानंद स्वामी को जब अन्नपूर्णा देवी द्वारा रमा देवी की जानकारी प्राप्त हुई तब उन्होंने अपने हाथों अपनी विशेष कृपा के निदर्शक-स्वरूप रमा देवी के लिए भगवान् का प्रसाद भेजा। पिछली दो-तीन रातों से रमा देवी मालती के साथ भजनोत्सव में भी जा रही थीं। स्वयं योगानंदजी ने भी एक-दो बार उनके बारे में पूछताछ करने की कृपा की थी। योगानंदजी का आचरण इतना धार्मिक, निर्लिप्त तथा सादगीपूर्ण होता कि गाँव के गुंडे-निठल्ले या निंदकों की टोली में भी उनकी कभी निंदा नहीं होती। भजन में जब वे तल्लीन होते तो ऐसा प्रतीत होता कि इस सत्पुरुष को जगत् तथा अपनी देह का भान तक नहीं है। उनकी मुख्य साधना भजन ही हुआ करती। अन्य कोई ढोंग-धथूरा उनके मठ में दिखाई नहीं देता। उनके शिष्यों की संख्या बड़ी थी जो उनके पीछे-पीछे अनुशासनपूर्वक चलते हुए मठ के अनुशासन के अनुसार व्यवहार करते हुए दिखाई देते। मथुरा से उनका पड़ाव शीघ्र ही उठनेवाला था, अतः इस अंतिम सप्ताह में भजन की धूमधाम चल रही थी। सैकड़ों लोग रात में उधर रेलपेल करते। रमा देवी मालती को लेकर आज रात के भजन-महोत्सव के लिए उधर ही जा रही थीं। माँ-बेटी के भोजनादि से निपटते ही अन्नपूर्णा देवी ने द्वार पर दस्तक दी। तुरंत तीनों स्वामीजी के मठ की ओर चल पड़ीं।

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Tuesday 3 July 2018

BHARAT VHIBAJAN SARDAR PATEL

                भारत विभाजन
-सरदार पटेल
              Foreword
सरदार पटेल कांग्रेस के एक प्रमुख सदस्य थे और पूर्ण स्वराज्य प्राप्त करने के उद्देश्य से स्वतंत्रता आंदोलन में उन्होंने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उनके संपूर्ण राजनीतिक जीवन में भारत की महानता और एकता ही उनका मार्गदर्शक सितारा रहा। सरदार पटेल दो समुदायों के बीच आंतरिक मतभेद उत्पन्न करने के लिए अलग-अलग चुनाव क्षेत्रों और सांप्रदायिक भेदभाववाले पुरस्कारों को स्वीकृत करके ‘बाँटो और राज करो’ की ब्रिटिश नीति के आलोचक थे। भारत की स्वतंत्रता को अस्वीकार करने के लिए हिंदू-मुसलिम मतभेद अंग्रेजों के लिए सरल बहाना था। लिनलिथगो-एमरे-चर्चिल समझौते ने इस मिथ्या तर्क को खूब भुनाया, जिससे हिंदू-मुसलिम एकता बनाए रखने के सरदार पटेल के प्रयासों के बावजूद पाकिस्तान को एक मूर्त स्वरूप प्रदान करने के जिन्ना के सपनों को सहायता मिली। सरदार पटेल का एक मापदंड यह जाँचना होता था कि क्या ब्रिटिश सरकार की कोई विशेष नीति देश के हित में है? उन्होंने महसूस किया कि जितनी जल्दी अंग्रेज भारत छोड़ दें, उतना ही यह देश के लिए अच्छा होगा। पाकिस्तान के लिए मुसलिम लीग की निरंतर माँग के संबंध में सरदार पटेल ने हिंदुओं और मुसलमानों दोनों से ही यह आग्रह किया था कि अपने मिश्रित प्रयासों से पहले स्वतंत्रता प्राप्त कर ली जाए; और फिर अंग्रेजों के चले जाने के बाद भारत के भाग्य का निर्णय किया जाए; क्योंकि ‘गुलामों के पास न तो पाकिस्तान है, न ही हिंदुस्तान।’ भारत की एकता को बनाए रखना ही उनकी प्रमुख चिंता थी और इस उद्देश्य से ही अनेक अवांछित शर्तों के बावजूद उन्होंने ‘कैबिनेट मिशन योजना’ को स्वीकार किया था; क्योंकि इसमें भारत की एकता पर बल देते हुए और एक अलग पाकिस्तान राज्य के लिए मुसलिम लीग की माँग को स्पष्ट रूप से अस्वीकर करते हुए यह कहा गया था कि ‘भारत राज्यों का एक संघ होना चाहिए।’ सरदार पटेल इस बात से प्रफुल्लित थे कि पाकिस्तान के विचार को ‘हमेशा के लिए दफना दिया गया’, जैसाकि उन्होंने अपने मित्रों को लिखा था। किंतु कांग्रेस अध्यक्ष के द्वारा अल्पसंख्यकों के मामले को एक ऐसी घरेलू समस्या के रूप में निरूपित किए जाने पर, जिसमें अंग्रेजों की मंजूरी या हस्तक्षेप की कोई आवश्यकता नहीं है, जिन्ना अत्यंत क्रुद्ध थे। मुसलिम लीग ने तब ‘असंवैधानिक तरीकों’ को अपनाया एवं जिन्ना ने मुसलमानों से 16 अगस्त को ‘सीधी काररवाई दिवस’ मनाने को कहा। इस निर्णय का अत्यंत दुःखद परिणाम यह हुआ कि बंगाल में दंगे और खून-खराबे का सिलसिला चला पड़ा तथा उत्तर प्रदेश और बिहार में भी इससे गंभीर प्रतिहिंसा हुई। असम, पंजाब, बंगाल, उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत में व्यापक अव्यवस्थाएँ फैलीं एवं दंगे हुए और बड़ी संख्या में लोगों की हत्याएँ हुईं। जब कांग्रेस ने अंग्रेजों से जल्दी जाने को कहा, तब उन्होंने कहा कि वे चले जाएँगे, यदि हम ‘आपस में सहमत हों’। गांधीजी ने 20 जुलाई, 1947 को ‘हरिजन’ में लिखा—‘‘एक समुदाय को दूसरे के विरुद्ध उकसाते रहने की नीति का अनुसरण करते हुए ब्रिटेन दो संगठित सेनाओं के बीच भारत को एक युद्ध-स्थल के रूप में छोड़ रहा है।’’ माउंटबेटन ने, जिन्होंने लॉर्ड वावेल से वाइसराय का पदभार ग्रहण किया था, 3॒जून, 1947 को अपनी योजना घोषित की। इसमें बँटवारे के सिद्धांत को स्वीकृति दी गई थी। इस योजना को कांग्रेस और मुसलिम लीग ने स्वीकार किया। सरदार पटेल ने कहा कि उन्होंने विभाजन के लिए सहमति इसलिए दी, क्योंकि वह विश्वसनीय रूप से समझते थे कि ‘‘(शेष) भारत को संयुक्त रखने के लिए इसे अब विभाजित कर दिया जाना चाहिए।’’ बँटवारे का समर्थन करते हुए पं. नेहरू ने टिप्पणी की थी कि ‘‘निर्दोष नागरिकों की हत्या से विभाजन बेहतर है।’’ पं. नेहरू और सरदार पटेल दोनों ने ही कांग्रेस कमेटी से कठोरतापूर्वक कह दिया था कि ‘‘या तो विभाजन स्वीकार करना होगा अथवा पूर्ण रुकावट और अराजकता का सामना करना पड़ेगा।’’ एक दूसरे अवसर पर सरदार पटेल ने कहा था कि ‘‘हमें विभाजन के लिए सहमत होना पड़ा...तमाम संशयों और दुःखों के बाद। किंतु मैंने महसूस किया कि यदि मैं विभाजन को स्वीकार नहीं करता हूँ तो भारत अनेक समुदायों में बँट जाएगा और पूर्णतः बरबाद हो जाएगा। विभाजन के बाद भी 75 प्रतिशत जनसंख्या इस ओर रह जाएगी, जिन्हें हमें ऊपर उठाना है।’’ यहाँ तक कि गांधीजी ने भी, जिनसे अनेक वर्षों तक सरदार पूर्णतः सहमत थे, महसूस किया कि यद्यपि वे इस निर्णय से सहमत नहीं हैं, ‘‘किंतु उन्होंने मुझसे (सरदार से) कहा कि यदि मेरा हृदय मेरी धारणा को ठीक समझता है तो मैं आगे बढ़ सकता हूँ।’’ यह पुस्तक ऐसे विषयों की पुस्तकों की शृंखला में छठी पुस्तक है। पहली पाँच पुस्तकें हैं—कश्मीर और हैदराबाद; मुसलमान और शरणार्थी; नेहरू, गांधी और सुभाष; आर्थिक एवं विदेश नीति तथा सरदार पटेल एवं प्रशासनिक सेवा। मैंने पाठकों की सुविधा के लिए एक विस्तृत भूमिका प्रस्तुत करने की चेष्टा की है, जो उन दस्तावेजों पर आधारित है, जो पंद्रह खंडों में डॉ. पी.एन. चोपड़ा एवं मेरे द्वारा संपादित ‘कलेक्टेड वर्क्स ऑफ सरदार पटेल’, दुर्गादास द्वारा संपादित ‘वॉल्यूम्स ऑफ सरदार पटेल्स कॉरस्पोंडेंस’ और दो खंडों में वी. शंकर द्वारा संपादित ‘सिलेक्टेड कॉरस्पोंडेंस ऑफ सरदार पटेल’ में दिए गए हैं। उपर्युक्त स्रोतों से संबंधित दस्तावेजों को ध्यानपूर्वक चुनकर भूमिका के साथ संलग्न किया गया है। —प्रभा चोपड़ा
                         Role
दिसंबर 1929 के लाहौर कांग्रेस अधिवेशन में एक ऐतिहासिक प्रस्ताव पारित किए जाने के साथ ही, जिसमें पूर्ण स्वराज्य या ‘कंपलीट इंडिपेंडेंस’ ही अंतिम लक्ष्य घोषित किया गया था, भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में एक नया अध्याय शुरू हुआ। इस लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए कांग्रेस कार्यकारिणी समिति ने फरवरी 1930 की अपनी बैठक में महात्मा गांधी को ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन’ प्रारंभ करने की अनुमति प्रदान की। सरदार वल्लभभाई पटेल कांग्रेस कार्यकारिणी समिति के एक प्रमुख सदस्य थे। गांधीजी ने कानून तोड़ते हुए दांडी समुद्र-तट पर नमक बनाकर 6 अप्रैल, 1930 को इस आंदोलन को प्रारंभ करने का निर्णय लिया। वाइसराय की तरफ से एक गोपनीय टेलीग्राम में बंबई की सरकार ने 17 जनवरी, 1930 को सूचित किया कि एक ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन’ या टैक्स न देने संबंधी अभियान गुजरात के किसी भाग में कभी भी प्रारंभ किया जा सकता है (प्रलेख-1)। सरदार पटेल को, जो कि एक जन्मजात आंदोलनकारी एवं स्कूल के दिनों से ही नेता थे और इस आंदोलन के एक प्रमुख व्यक्ति थे, बंबई की सरकार द्वारा 7 मार्च, 1930 को बोरसाद में ‘ग्रामीणों को नमक बनाने के लिए’ उकसाने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया (प्रलेख-2)। उनकी गिरफ्तारी और तीन महीने जेल की सजा ने एक संकेत दे दिया कि युद्ध प्रारंभ हो चुका है। जैसाकि नेहरू ने टिप्पणी की कि ‘‘इसका अर्थ यह है कि हम लड़ाई के बीचोबीच हैं।’’ (प्रलेख-3) सरदार पटेल को गुप्त रूप से एक विशेष ट्रेन द्वारा साबरमती से यरवदा जेल भेज दिया गया। जेल में रहते हुए उन्हें सुबह ‘ज्वार का दलिया’ और एक दिन के अंतराल पर ज्वार की रोटी और दाल या रोटी एवं सब्जी दी जाती थी। सरदार पटेल दाँत दर्द से पीडि़त थे और जब उनसे पूछा गया कि उन्होंने ज्वार की रोटी को किस प्रकार चबाया, तब उन्होंने हँसते हुए कहा, ‘‘ओह, मैंने उसे पानी में भिगोकर तोड़ दिया और बड़ी आसानी से खा गया।’’ कुछ देर मौन रहने के बाद उन्होंने फिर कहा, ‘‘एक चीज जो मुझे चिंतित करती है वह यह है कि जेल में सभी जिम्मेदार अधिकारी भारतीय हैं। हम भारतीयों के माध्यम से ही वे ऐसी अमानवीय व्यवस्था चलाते हैं। मेरी कामना है कि सभी विदेशी होते, ताकि मैं उनसे लड़ सकता। लेकिन मैं अपने ही सगे-संबंधियों से कैसे लड़ सकता हूँ?’’ (प्रलेख-4) सरदार पटेल ने स्पष्ट किया कि ब्रिटिश इंडिया में कांग्रेस जिस स्वतंत्रता आंदोलन को चला रही थी, वह सामंतों की रियासतों सहित 33 करोड़ लोगों की मुक्ति के लिए था। (प्रलेख-5) उन्होंने संपूर्ण भारत के लिए सैन्य बलों एवं आर्थिक नियंत्रण सहित अपने लोगों के प्रति जिम्मेदार एक पूर्ण राष्ट्रीय सरकार की माँग की। जवाहरलाल नेहरू ने अक्तूबर 1930 में अपनी संभावित गिरफ्तारी का खयाल करते हुए सरदार पटेल को कार्यकारी अध्यक्ष नामांकित किया। सरदार पटेल ने कार्यभार ग्रहण करने के बाद देश का एक तूफानी दौरा किया और कांग्रेस के संदेश को लोगों तक पहुँचाया तथा इस बात पर जोर दिया कि विदेशी कपड़ों का बहिष्कार किया जाए। उन्होंने अपने श्रोताओं को यह भी बताया कि जनता परिषद् में सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व और सीटें नहीं चाहती। उनकी समस्या भूख और रोटी है। (प्रलेख-6) हिंदू-मुसलिम एकता पर जोर देते हुए उन्होंने इस विचार का खंडन किया कि मुसलिम इस राष्ट्रीय आंदोलन में भाग नहीं ले रहे हैं। (प्रलेख-7) किंतु सरदार पटेल बंगाल की स्थिति से परेशान थे, विशेष रूप से अंग्रेजों द्वारा मुसलमानों को उकसाए जाने के कारण । (प्रलेख-8) सरदार पटेल की अध्यक्षता में 2 अप्रैल, 1931 को कराची में इंडियन नेशनल कांग्रेस की कार्यकारिणी समिति के द्वारा विभिन्न स्तरों पर विचार किए जाने के बाद तिरंगा राष्ट्रीय ध्वज स्वीकार किया गया। कमेटी का यह दृष्टिकोण सर्वसम्मत था कि ध्वजा के रंगों का कोई सांप्रदायिक महत्त्व नहीं होना चाहिए। किंतु अनेक सदस्यों ने यह महसूस किया कि झंडे का लाल व हरा रंग हिंदू और मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करता है और बाद में सफेद रंग जोड़ा गया, जो भारत के अन्य समुदायों के लिए था। यह वही ध्वज था जिसके नीचे सन् 1930-31 में महान् भारतीय अहिंसा आंदोलन प्रारंभ किया गया। बाद में इसे असांप्रदायिक महत्त्व देने के लिए नीले रंग के चरखों के साथ लाल रंग को केसरिया रंग में बदल दिया गया। केसरिया रंग साहस और त्याग का, सफेद शांति और सत्य का, हरा रंग विश्वास और शौर्य का एवं चरखा जनता की आशा का प्रतीक है। (प्रलेख-9) यद्यपि सरदार पटेल परिषद् (काउंसिल) में प्रवेश के विरुद्ध थे, फिर भी उन्होंने सन् 1934 में महासभा (असेंबली) का चुनाव लड़ने के कांग्रेस के निर्णय का समर्थन किया। कांग्रेस पार्टी के एक अनुशासित सिपाही के रूप में उन्होंने चुनाव लड़ने के आलाकमान के फैसले को स्वीकार किया और कहा कि ‘‘वह कांग्रेस के द्वारा स्वीकार किए गए किसी भी कार्यक्रम में सहयोग करेंगे, क्योंकि मनोवैज्ञानिक दृष्टि से उपयुक्त वर्तमान समय में कार्यकर्ताओं के बीच मतभेद उत्पन्न कर वह कांग्रेस की प्रतिष्ठा को संकटापन्न करने के विरुद्ध हैं...। सरदार पटेल उत्सुक थे कि कांग्रेस कार्यकर्ताओं में हर कीमत पर एकता बनी रहे और प्रत्येक कार्यकर्ता कांग्रेस के कार्यक्रमों का निर्विवाद रूप से पालन करता रहे।’’ उन्होंने प्रांतों का, विशेषकर बंबई और गुजरात का, तूफानी दौरा किया और लोगों से आग्रह किया कि वे कांग्रेस प्रत्याशी को वोट दें और कांग्रेस संसदीय बोर्ड के महामंत्री भूलाभाई जे. देसाई से कहा कि वे बंबई के लोगों तक उनका संदेश पहुँचाएँ। (प्रलेख-10, 11 और 12) सरदार पटेल ने रास (Ras) के लोगों को आनेवाले प्रांतीय महासभा (प्रोविंशियल असेंबली) चुनावों के महत्त्व को समझाने का प्रयास किया और उन्हें कांग्रेस प्रत्याशी को वोट देने के लिए प्रेरित किया, ‘‘लड़ाई अभी समाप्त नहीं हुई है, लेकिन इसका तरीका बदल दिया गया है। स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कभी खत्म नहीं होता।’’ इस अवधि में उनके सभी भाषणों में उनका स्वर सत्ता के साथ सामंजस्य स्थापित करने का था, न कि विरोध करने का। किंतु उन्होंने लोगों को सलाह दी कि कांग्रेस की नीतियों में बदलाव के कारण कोई भी नियम-विरुद्ध कार्य न करें। परंतु इसके साथ ही उन्होंने लोगों को यह भी स्पष्ट कर दिया कि देश की मुक्ति के लिए विदेशी सरकार के साथ लंबे समय तक चलनेवाले संघर्ष में यह सिर्फ एक अगला कदम है और लोगों को स्वतंत्रता-प्राप्ति के लिए और अधिक बलिदान करने को तैयार रहना चाहिए। (प्रलेख-13 और 14) उन्होंने तर्क दिया कि यद्यपि उन लोगों ने ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन’ स्थगित किया है, किंतु ‘‘लोगों और सरकार के बीच की लड़ाई अभी भी समाप्त नहीं हुई है।’’ (प्रलेख-15) वह हिंदू-मुसलिम एकता के प्रति अडिग रहे और उन्होंने समुदायों में आंतरिक मतभेद उत्पन्न करने के उद्देश्य से सांप्रदायिक पुरस्कारों की स्थापना करने के लिए ब्रिटिश सरकार की आलोचना की। उन्होंने हिंदुओं और मुसलमानों दोनों को ही नसीहत दी कि वे आपस में झगड़ा न करें। उनका विश्वास था कि ‘‘मसजिदों और गुरुद्वारों के विषय पर लड़ना अत्यंत अधार्मिक है और ऐसे सांप्रदायिक झगड़े ही देश की पराधीनता के लिए जिम्मेदार हैं।’’ (प्रलेख-16) उन्होंने घोषित किया कि ‘‘वास्तव में ईश्वर मसजिदों और मंदिरों तक ही सीमित नहीं है। वह सर्वत्र परिव्याप्त है। उसे देखने का सबसे अच्छा तरीका अपने अंदर देखना है।’’ (प्रलेख-17) ब्रिटिश सरकार सरदार पटेल के क्रियाकलापों के बारे में बहुत चिंतित थी और उन पर नजर रख रही थी। इस संबंध में डी.आई.जी. पुलिस, बंबई ने अपने गोपनीय पत्र दिनांक 22 मार्च, 1935 के द्वारा विशेष सचिव (गृह), बंबई को सूचित किया कि वल्लभभाई की यात्रा स्थिति का जायजा लेने तथा यह आँकने के लिए की गई थी कि सरकार-विरोधी उस आंदोलन में कांग्रेस की नीति क्या होनी चाहिए, जिसकी तैयारी वर्धामें उस समय की जा रही थी। (प्रलेख-18) सरदार ने लोगों से कांग्रेस को वोट देने का आग्रह किया, जिसका ‘‘लक्ष्य स्वतंत्रता या ‘पूर्ण स्वराज्य’ प्राप्त करना है। किंतु कांग्रेस का उद्देश्य तभी पूरा हो सकता है, जब इस आंदोलन में कांग्रेस को देश का सर्वाधिक समर्थन प्राप्त हो...। जिन लोगों को वोट देने का अधिकार दिया गया है उन्हें इस अधिकार को देश की पवित्र धरोहर समझना चाहिए।’’ ‘‘कांग्रेस को वोट देना स्वतंत्रता को चुनना है; कांग्रेस के विरुद्ध वोट देना गुलामी को अपनाना है।’’ (प्रलेख-19 और 20) सरदार पटेल सरकार द्वारा हरिजनों और मुसलमानों के लिए अलग चुनाव क्षेत्रों की व्यवस्था की नीति के आलोचक थे। इस संबंध में उन्होंने कहा, ‘‘सरकार भारत को दो अलग भागों में बाँटना चाहती है। सरकार ‘बाँटो और राज करो’ की नीति अपनाकर कांग्रेस को पराजित करना चाहती है।’’ (प्रलेख-21) वह कांग्रेस मंत्रालयों के काम-काज से पूर्णतः संतुष्ट थे और हरिपुर सम्मेलन के दौरान अपने भाषण में उन्होंने विशेष रूप से जोर देकर कहा, ‘‘कांग्रेस के कार्यभार ग्रहण करने के पूर्व सांप्रदायिक क्लेश अधिक था, किंतु कांग्रेस के कार्यभार ग्रहण करने के बाद से सांप्रदायिक बलवे का एक भी गंभीर मामला नहीं हुआ है और इससे कांग्रेस के शासन करने की क्षमता की विस्तृत अभिव्यक्ति होती है।’’ (प्रलेख-22) सरदार पटेल ने दृढ़तापूर्वक जिन्ना के इस आरोप का खंडन किया कि कांग्रेस शासन में मुसलमानों का दमन किया जा रहा है। 11 दिसंबर, 1939 को ‘हिंदू’ में प्रकाशित अपने एक वक्तव्य में उन्होंने इन आरोपों को ‘‘अविचारित, अदूरदर्शी और सांप्रदायिक शांति को खतरे में डालनेवाला’’ बताया। वह यह देखकर दुःखी थे कि स्थिति को अच्छी तरह समझते हुए भी वाइसराय और गवर्नर्स ने इन आरोपों का समुचित जवाब देने से इनकार किया। यद्यपि वे भी इससे उतने ही संबंधित थे जितना कि मंत्री; और इसका कारण केवल वे ही जानते थे। स्वयं जिन्ना ने भी एक स्वतंत्र न्यायाधिकरण के समक्ष अपने आरोपों को जाँच के लिए प्रस्तुत करने के कांग्रेस अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद के प्रस्ताव की अवहेलना की। (प्रलेख-23, 24 और 25) 16 अक्तूबर, 1939 को राजेंद्र बाबू को लिखे अपने पत्र में सरदार पटेल ने जिन्ना का तुष्टीकरण किए जाने की आलोचना की। उन्होंने लिखा—‘‘मेरे विचार से, हम लोगों के द्वारा अब कोई और पहल नहीं की जानी चाहिए...। आपके पत्र के जवाब में श्री जिन्ना के पिछले उत्तर से अब आगे किसी पहल की पूरी जिम्मेदारी उन्हीं पर पड़ती है। मैं समझता हूँ कि लगातार प्रस्ताव देकर हम लोग अपना केस खराब कर रहे हैं।...मेरा दृढ़ विश्वास है कि सांप्रदायिकता के प्रश्न का कोई समाधान तब तक नहीं हो सकता जब तक कि श्री जिन्ना यह महसूस न कर लें कि वह कांग्रेस पर दबाव नहीं डाल सकते।’’ (प्रलेख-26) कांग्रेस मंत्रालयों के विरुद्ध जिन्ना के आधारहीन आरोपों पर वाइसराय एवं राज्यपालों की चुप्पी पर अपनी भावनाओं के उद्वेग में सरदार पटेल ने टिप्पणी की—‘‘कांग्रेस कार्यकारिणी समिति की बैठक की संध्या में जिन्ना के साथ किसी विवाद में पड़ने की मेरी कोई इच्छा नहीं है, विशेष रूप से जब उन्होंने सांप्रदायिकता के प्रश्न पर एक असंभव तर्क प्रस्तुत करना उचित समझा है। लेकिन मैं देश के प्रति अपना यह कर्तव्य समझता हूँ कि जनता का ध्यान जिन्ना के हालिया बयान के अभिप्रेत अर्थों की ओर आकर्षित करूँ। ‘‘जिन्ना के वक्तव्य से यह स्पष्ट है कि वह कोई सांप्रदायिक समझौता नहीं चाहते हैं।... उनका एकमात्र उद्देश्य सांप्रदायिकता की भावना को अत्यधिक तनाव की स्थिति में बनाए रखना ही प्रतीत होता है। उनकी तथाकथित मुक्ति के दिन को मनाए जाने की जिद स्पष्टतः व्याप्त विद्वेष को उत्तेजित करना है, जिससे अनेक लोग यह समझते हैं कि दो समुदायों में लड़ाई-झगड़ा प्रारंभ हो सकता है।’’ (प्रलेख-24) जवाहरलाल नेहरू को 9 दिसंबर, 1939 को लिखे अपने पत्र में उन्होंने जिन्ना के वक्तव्य को मुसलमानों को मात्र भड़कानेवाला एक वक्तव्य बतलाया। उन्होंने कहा, ‘‘संपूर्ण भारत में हमारे लोग यह सुनकर क्रोधित होंगे कि आप उनके इस भड़काऊ वक्तव्य के बाद भी उनसे मिल रहे हैं। हम लोगों को इस स्थिति को जल्द-से-जल्द समाप्त कर देना चाहिए।’’ मैं देखता हूँ कि सर स्टैफोर्ड क्रिप्स भी सर्वश्री जिन्ना एवं अंबेडकर और राजकुमारों के कुछ प्रतिनिधियों से मिल रहे हैं। मैं आशा करता हूँ कि उनकी मुलाकातों से राजनीतिक समुद्र के नीचे दबे पंकिल जल की गंदगी में पुनः हलचल नहीं होगी।’’ (प्रलेख-27)1 बाद में भावनगर प्रजामंडल कांग्रेस में पहुँचने पर जब सरदार पटेल को एक जुलूस में ले जाया गया तो एक मसजिद के निकट उस जुलूस पर मुसलमानों द्वारा आक्रमण किया गया। इस संघर्ष में दो व्यक्ति मारे गए और एक गंभीर रूप से घायल हुआ। किंतु सरदार शांत रहे और लोगों से अपील की कि वे इस स्थिति से उत्तेजित न हों तथा पूर्ण अहिंसा का पालन करें। (प्रलेख-28) यद्यपि सरदार पटेल यह चाहते थे कि विभिन्न समुदायों में निश्चित रूप से एकता होनी चाहिए, किंतु फिर भी उन्होंने यह जरूरी समझा और कहा कि ‘‘यदि हम वास्तव में एकता चाहते हैं तो उन लोगों का पता लगाया जाना चाहिए, जो इन घृणित कार्यों के पीछे हैं और हमें उन्हें तब तक नहीं छोड़ना चाहिए जब तक वे अपने कृत्यों के लिए पश्चात्ताप न करने लगें। उन्हें यह सोचने का अवसर नहीं दिया जाना चाहिए कि हम मूर्ख और कमजोर हैं।’’ (प्रलेख-29) भावनगर में कुछ मुसलमानों द्वारा उन पर आक्रमण किए जाने के बावजूद सरदार पटेल ने राजेंद्र बाबू से कहा कि उन आर्यसमाजियों पर कठोर काररवाई की जानी चाहिए, जो शोलापुर में दो मुसलमानों की हत्या के जिम्मेदार हैं। (प्रलेख-30) ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीयों के पूर्ण स्वराज्य की महत्त्वाकांक्षा को अंगीकार करने की मनोवृत्ति से यद्यपि कांग्रेस के नेतागण अत्यधिक हताश थे, फिर भी सन् 1939 में प्रारंभ हुए द्वितीय विश्व युद्ध में अंग्रेजों ने बिना उनकी सहमति के ही उन्हें शामिल कर लिया। तात्कालिक वाइसराय लॉर्ड लिनलिथगो ने जर्मनी के विरुद्ध भारत को युद्ध में शामिल घोषित कर दिया और कांग्रेस मंत्रालयों से परामर्श करने की परवाह नहीं की। कांग्रेस के द्वारा इस पर आक्रोश व्यक्त करते हुए स्पष्ट किया गया कि भारत युद्ध में तभी सहयोग कर सकता है जब उसे एक स्वतंत्र देश घोषित किया जाए। सरदार पटेल ने ब्रिटिश सरकार की तीखी आलोचना की, ‘‘यह आश्चर्यजनक है कि संसार की कुल जनसंख्या के पाँचवें हिस्सेवाले एक देश को बिना उसकी सहमति के ही एक भयंकर युद्ध में सम्मिलित कर दिया गया है।’’ उन्होंने कहा, ‘‘कांग्रेस 35 करोड़ लोगों के लिए स्वतंत्रता चाहती है। संपूर्ण भारत के लिए स्वाधीनता।’’ किंतु भारत की सहमति के बिना ही ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत के द्वितीय विश्व युद्ध में शामिल होने की घोषणा पर उन्होंने कहा, ‘‘यह भारत की गरिमा और प्रतिष्ठा के लिए अपमानजनक है। वे कांग्रेस को दबाना चाहते हैं। यह घोषणा संघर्ष के लिए कांग्रेस को एक निमंत्रण है।’’ (प्रलेख-31) हम अंग्रेजों से कहते हैं कि हम आपको पूर्ण सहयोग करने के लिए तैयार हैं। यद्यपि हम अपने अहिंसा के प्रयोग में और आगे नहीं बढ़ सकेंगे, फिर भी हम युद्ध में आपकी तरफ रहेंगे। युवक लोग सैन्य प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए एक अवसर चाहते हैं। कांग्रेस की विधायी (लेजिस्लेटिव) पार्टी ने बारंबार यह प्रस्ताव पास किया है कि सेना का भारतीयकरण किया जाना चाहिए।... ‘‘हम लोग आपके सभी पिछले दुष्कर्मों को भुला देने के लिए तैयार हैं। लेकिन मैं आपसे यह पूछता हूँ कि मरते समय भी क्या आप एक वसीयत लिखना और भविष्य के लिए व्यवस्था करना चाहेंगे? हम सोचते हैं कि जब हमारा देश स्वतंत्र नहीं है तो हम किस प्रकार संसार की स्वतंत्रता के लिए प्रयास कर सकते हैं, जबकि हम स्वयं गुलाम हैं! यदि हम सत्ता के हस्तांतरण के बारे में बिना किसी स्पष्टीकरण के ही उन्हें मदद करते हैं तो हमारी बेडि़याँ और भी कस जाएँगी—हमारा पिछला अनुभव ऐसा ही है। इसलिए हम जो बात कर रहे हैं वह सौदे के बारे में नहीं है, बल्कि एक स्पष्टीकरण के बारे में है।’’ (प्रलेख-32) सरदार पटेल आक्रोशित थे कि ब्रिटिश साम्राज्यवादी मीठी-मीठी बातें करते हैं। बार-बार वार्त्तालाप किए गए। गांधीजी वाइसराय से बार-बार मिले, किंतु उन्हें कुछ भी ऐसा नहीं मिला जो स्वीकार्य हो। ‘‘हम लोगों ने काफी धैर्य रखा, क्योंकि हम लोग दुश्मन को उस समय तंग नहीं करना चाहते थे जब वह कठिनाई में है। किंतु अब हमारा धैर्य समाप्त हो चुका है। ऐसा लगता है कि ब्रिटिश साम्राज्य अपना असली स्वभाव दिखला रहा है। सरकार इस समय जो कर रही है, उससे लगता है कि वह हमें विभाजित करना चाहती है। उन्हें करने दीजिए। किंतु हमारी राष्ट्रीयता, जिसकी जड़ें गहराई तक हैं, प्रभावित नहीं होगी। इस समय वे कांग्रेस को कुचलने के उद्देश्य से विरोधी शक्तियों को एक साथ जोड़ने में व्यस्त हैं।’’ उन्होंने कहा, ‘‘आप हमारे कंधों पर पिछले डेढ़ सौ सालों से सवारी करते चले आ रहे हैं, अब उतर जाइए। वे कहते हैं कि यदि वे चले जाएँ तो हमारा क्या होगा? आप हमसे यह प्रश्न दो सौ वर्षों तक शासन करने के बाद पूछ रहे हैं! फिर आपने इतने वर्षों तक क्या किया? इससे मुझे एक झगड़े का प्रसंग याद आता है—एक मकान मालिक से चौकीदार पूछता है कि ‘क्या होगा, जब वह चला जाएगा?’ ‘मैं सुरक्षा करना सीख लूँगा।’ लेकिन यह चौकीदार काम छोड़ता नहीं है और हम लोगों को बार-बार धमकाता रहता है।’’ (प्रलेख-33) वचनबद्ध न रहने के लिए ब्रिटिश सरकार को फटकार लगाते हुए सरदार पटेल ने कहा, ‘‘कांग्रेस ने कहा है कि यदि आप वास्तव में हमारी मदद करना चाहते हैं तो वाइसराय की परिषद् का गठन बंद कीजिए और इसकी जगह कांग्रेस, मुसलिम लीग, हिंदू महासभा और अन्य सभी पार्टियों के प्रतिनिधियों और कुछ अंग्रेजों को भी साथ लेकर एक राष्ट्रीय सरकार बनाइए और इस सरकार को जनता के प्रति जिम्मेदार रहने दीजिए...लेकिन उनका प्रस्ताव सरकारी नौकरों को शामिल करके वाइसराय की परिषद् को विस्तृत करना है...उनकी आकांक्षा पवित्र नहीं है।’’ (प्रलेख-34) किंतु ‘‘उनकी परीक्षा की घड़ी में हम भारत के प्रति उनकी त्रुटियों को याद नहीं दिलाना चाहते हैं; परंतु हम अपनी माँगों से थोड़ा भी पीछे नहीं हट रहे हैं। हमने यह स्पष्ट कर दिया है कि यदि हमारी माँगें स्वीकार कर ली जाती हैं तो हमारा पूर्ण और हार्दिक सहयोग ग्रेट ब्रिटेन के साथ होगा।’’ सरदार पटेल ने जोर देकर कहा था कि यदि ब्रिटिश सरकार भारत की स्वतंत्रता की माँग को स्वीकार कर लेती है तो ‘‘यह अच्छा होगा, क्योंकि यह उनके लिए लाभकारी होगा और हमारे हित में; किंतु यदि वे नहीं मानते हैं तो हम अपना रास्ता चुनने के लिए स्वतंत्र हैं और हम ऐसा करेंगे।’’ उन्होंने आगे कहा, ‘‘कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो इस कदम से खतरा महसूस कर रहे हैं... किंतु भारत जैसे विशाल देश की स्वतंत्रता के मसले को तब तक नहीं सुलझाया जा सकता है जब तक कि हम एक सीमा तक जोखिम उठाने को तैयार न हो जाएँ, और हम ऐसा करने के लिए तैयार हैं।... हमारा सहयोग, यदि इसे पूर्ण और हार्दिक होना है, तो इसे स्वतंत्र भारत के लोगों से आना चाहिए। फिर हम ब्रिटेन की तब तक मदद नहीं कर सकते जब तक कि हम स्वतंत्र नहीं हैं; क्योंकि इस प्रकार दिए गए सभी सहयोगों से हमारी बेडि़याँ हमें और जकड़ेंगी और हम मूर्ख नहीं हैं कि इसे होने देंगे।’’ (प्रलेख-35) इसी बीच ब्रिटेन के विरुद्ध ‘ऐक्सिस पावर’ (जर्मनी, इटली और जापान की संधि) में एक मित्र-राष्ट्र के रूप में जापान के सम्मिलित हो जाने से जहाँ तक भारत का संबंध है, युद्ध ने एक खतरनाक मोड़ ले लिया था। सन् 1942 में भारत युद्ध के मैदान के बहुत निकट पहुँच गया था। गुजरात में नडियाड के लोगों के सम्मुख बोलते हुए सरदार पटेल ने कहा था, ‘‘युद्ध अब हमारे दरवाजे पर पहुँच गया है।... अब हमें एक जाति और दूसरी जाति, एक धर्म और दूसरे धर्म, एक समुदाय और दूसरे समुदाय आदि के मतभेदों को भूलकर एकजुट हो जाना है और भय का परित्याग करना है।’’ (प्रलेख-36) उन्होंने जोर दिया कि अहिंसा एक सीमित क्षेत्र तक ठीक है, किंतु यह आंतरिक या बाह्य आक्रमण का सामना करने के लिए उचित नहीं है। (प्रलेख-37) जापानी सेना ने सिंगापुर, मलाया, रंगून और मांडले पर बड़ी तेजी से कब्जा कर लिया। सीलोन (श्रीलंका) पर आक्रमण किया गया और भारत पर भी आक्रमण का खतरा था। इस प्रकार सन् 1942 में भारत युद्ध के मैदान के बहुत निकट पहुँच गया था, क्योंकि अप्रैल 1942 में विशाखापट्टनम और काकीनाडा पर हवाई हमले किए गए। जापानी युद्धपोत भी बंगाल की खाड़ी में दिखे थे। 2 सरदार पटेल ने टिप्पणी की कि कांग्रेस एक अद्वितीय संगठन है। करोड़ों लोग इसके पीछे हैं और इसकी आवाज सुनते हैं। ‘‘हम लोगों को उस किसी भी शक्ति से लड़ना है, जो हमारे ऊपर शासन करने की कोशिश करती है। कांग्रेस किसी भी हमलावर से लड़ेगी। हम यह नहीं चाहते कि एक बुराई को दूसरी बुराई से स्थानांतरित किया जाए। हम लुटेरों के बीच चुनाव नहीं कर सकते।’’ (प्रलेख-38) उन्होंने लोगों को राष्ट्रीय शक्तियों से जुड़ने और कांग्रेस की सहायता करने के लिए प्रेरित किया। ‘‘मृत्यु से मत डरिए।... हम लोगों को गांधीजी से एक चीज सीखनी है और वह है निर्भयता।’’ मित्र-राष्ट्र भारत के भाग्य के बारे में बहुत चिंतित थे। संयुक्त राज अमेरिका के राष्ट्रपति रूजवेल्ट और चीन के चिआंग काई-शेक ने ब्रिटिश सरकार पर भारतीय नेताओं के साथ एक समझौता करने के लिए दबाव डाला। तदनुसार ब्रिटिश मंत्रिमंडल के एक सदस्य सर स्टैफोर्ड क्रिप्स को ब्रिटिश प्रधानमंत्री श्री चर्चिल ने भारत जाकर इस गतिरोध का निपटारा करने के लिए प्रतिनियुक्त किया। सर स्टैफोर्ड क्रिप्स मार्च 1942 में कुछ प्रस्तावों के साथ दिल्ली (भारत) आए। उन्होंने वाइसराय, उनकी कार्यकारी परिषद् के सदस्यों, राज्यपालोंऔर फिर प्रमुख पार्टियों के नेताओं से बातचीत की, जिनमें सर्वश्री गांधी, जिन्ना और नेहरू शामिल थे। उनके प्रस्तावों में तीन मुख्य बातें सन्निहित थीं— (1) युद्ध के समाप्त होने के तुरंत बाद एक नया संविधान निर्मित करने के लिए भारत में एक निर्वाचित समिति का गठन किया जाएगा। नए प्रांतीय चुनावों के बाद प्रांतों को जनसंख्या के अनुपात में अपने प्रतिनिधियों को भेजने के लिए आमंत्रित किया जाएगा (उनके निचले सदन से) तथा उनके अधिकार ब्रिटिश भारत के सदस्यों के समान ही होंगे। ब्रिटिश सरकार ने नए संविधान को निम्नलिखित शर्तों के साथ स्वीकार करने और लागू करने का वचन दिया— (2) (अ) जो प्रांत नए संविधान को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं, वे अपनी वर्तमान संवैधानिक स्थिति पर बने रहेंगे। यदि वे बाद में शामिल होने का निर्णय करते हैं तो उसकी व्यवस्था की गई है। शामिल न होनेवाला प्रांत यदि प्रतिनिधियोंवाली समान प्रक्रिया से एक नया संविधान बनाना चाहता है तो ब्रिटिश सरकार उससे सहमत होगी और उसका वही स्थान होगा, जो स्वयं भारतीय संघ का होगा। (ब) ब्रिटिश महामहिम की सरकार और संविधान की रचना करनेवाली समिति के बीच हुए समझौते पर हस्ताक्षर किए जाएँगे। इस संधि में शासन के हस्तांतरण से उत्पन्न होनेवाले सभी आवश्यक विषयों को समाविष्ट किया जाएगा; ब्रिटिश वायदे के मुताबिक इसमें अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए व्यवस्था होगी, लेकिन ब्रिटिश कॉमनवेल्थ से भविष्य के अपने संबंधों के निर्णय के भारतीय संघ के अधिकार को सीमित नहीं किया जाएगा। भारतीय रियासतों से की गई संधियों पर पुनर्विचार किया जाएगा। (3) किंतु क्रिप्स ने यह भी अनुबद्ध किया कि युद्ध के दौरान वाइसराय की परिषद् का पुनर्गठन पार्टी नेताओं की एक अंतरिम सरकार बनाकर किया जाएगा; परंतु प्रतिरक्षा विभाग अंग्रेजों के पास ही रहेगा। इस प्रकार, जैसाकि हडसन ने टिप्पणी की कि दीर्घकालिक नीतियाँ यथार्थतः ब्रिटिश सरकार की ही थीं... प्रांतीयता का विकल्प सांप्रदायिक गतिरोध की कुंजी थी।... एक और तथ्य जिसे दृढ़ता से, किंतु सरकारी सलाहकारों द्वारा निराधार ही प्रस्तुत किया गया, वह यह था कि संधि में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए तब तक व्यवस्था नहीं हो सकती जब तक कि इसमें उनके प्रतिनिधिस्वरूप ब्रिटिश हस्तक्षेप की आवश्यक व्यवस्था न कर ली जाए। कांग्रेस और मुसलिम लीग दोनों ने ही इन प्रस्तावों को अस्वीकृत कर दिया। कांग्रेस ने महसूस किया कि क्रिप्स मिशन के प्रस्तावों से ‘‘कांग्रेस और सरकार के बीच की दूरियाँ बढ़ेंगी और जिसे वे मानते थे कि शासन त्यागने की अपनी असम्मति को अंततः उन्होंने अभिव्यक्त किया था।’’ कांग्रेस ने यथार्थतः भारतीय हाथों में तत्काल शासन हस्तांतरित करने के लिए आग्रह किया। यानी पूर्ण शक्ति-संपन्न एक मंत्रिमंडलीय सरकार और (क्रिप्स के) प्रस्तावों को अस्वीकृत कर दिया।3 यद्यपि कांग्रेस का यह विचार था कि वह किसी भी रियासत को अपनी इच्छा के विरुद्ध भारतीय संघ में रहने के लिए बाध्य नहीं करेंगे, पर वे समान और संयुक्त राष्ट्रीय जीवन एवं एक दृढ़ राष्ट्रीय राज्य का निर्माण करने के लिए सभी प्रयास करने को उत्सुक हैं। इसलिए उन्होंने प्रस्तावों को अस्वीकार कर दिया। मुसलिम लीग ने भी इन प्रस्तावों को अस्वीकार कर दिया, क्योंकि वे महसूस करते थे कि शामिल न होनेवाला प्रावधान बिलकुल भ्रामक था और पाकिस्तान के निर्माण को दूरस्थ संभावना के क्षेत्र में धकेल दिया गया था। क्रिप्स मिशन की विफलता से, जो स्पष्टतः अमेरिका के लोगों की भावनाओं को ब्रिटेन के पक्ष में निर्मित करने के लिए भारत आया था, गांधीजी की मनःस्थिति में एक स्पष्ट परिवर्तन आया। क्रिप्स प्रस्ताव को अस्वीकृत करते हुए गांधीजी ने इसे ‘‘एक डूबते हुए बैंक का पोस्टडेटेड चेक’’ बताया।4 क्रिप्स मिशन के प्रस्तावों से पूर्णतः निराश होकर तथा ऊबकर गांधीजी ने होरेस अलेक्जेंडर को 22 अप्रैल, 1942 को लिखा—‘‘सर स्टैफोर्ड क्रिप्स आए और चले गए। कितना अच्छा होता, यदि वे इस दुःखमय मिशन के साथ न आए होते। कम-से-कम उन्हें तो जवाहरलाल की इच्छाओं को जाने बगैर नहीं ही आना चाहिए था। इस संकटपूर्ण समय में ब्रिटिश सरकार कैसे ऐसा व्यवहार कर सकती है, जैसाकि उन्होंने किया है? प्रमुख पार्टियों से विचार-विमर्श किए बिना ही उन्होंने प्रस्तावों को क्यों प्रेषित किया? एक भी पार्टी संतुष्ट नहीं थी। सभी को खुश करने की कोशिश में प्रस्तावों ने किसी को भी संतुष्ट नहीं किया।...’’5 ‘‘मैंने उनसे खुलकर बातचीत की, लेकिन एक मित्र की तरह।... मैंने कुछ सुझाव भी दिए, किंतु उन सबका कोई उपयोग नहीं किया गया। यथारीति वे लोग व्यावहारिक नहीं थे। मैं जाना नहीं चाहता था। सभी युद्धों का विरोधी होने के कारण मेरे पास कहने के लिए कुछ नहीं था। कार्यकारिणी समिति से पूरी बातचीत के दौरान मैं उपस्थित नहीं था। मैं हट गया था। परिणाम आप जानते हैं। यह होना ही था। इन सबसे एक मन-मुटाव उत्पन्न हो गया है।’’

DRIVEN The VIRAT KOHLI Story

                                          DRIVEN
 The VIRAT KOHLI Story

                                 Introduction

हमने उन्हें दिल्ली में शायद ही कभी देखा। वह लगातार आउटस्टेशन क्रिकेट मैचों में व्यस्त थे। उसके बाद राष्ट्रीय स्तर पर अपनी शक्ति की घोषणा करने के बाद उनकी उपस्थिति कुछ और दूर हो गई। विराट कोहली एक प्रतिभा है जो अपने आत्मविश्वास की ताकत पर एक घटना में बढ़ी है, जिसमें एक निरंतर समर्थक था - उनके कोच राज कुमार शर्मा। जब विराट दिल्ली के स्थानीय सर्किट में खबर बना रहा था, तो उसके शोषण पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया था। मैं अपने खेल के दिनों से राज कुमार को जानता था और यह उनके माध्यम से था कि इस लड़के में मेरी दिलचस्पी बढ़ी। उनके बड़े स्कोर सर्किट का एक सतत हिस्सा थे जो बेहद प्रतिस्पर्धी थे, क्योंकि विराट ने वरिष्ठ नागरिकों की कंपनी में खेलने पर जोर दिया था। राज कुमार ने अनुरोध किया, 'आपको इस लड़के को देखना होगा।' बेशक, जूनियर क्रिकेट सर्किट इस बेहद प्रतिभाशाली बल्लेबाज के आसपास केंद्रित रैविंग टॉक के साथ उत्साहित था। धीरे-धीरे, राष्ट्रीय सर्किट पर अधिकार के साथ बड़े स्कोर को संकलित करने की विराट की क्षमता, और अचानक वह राष्ट्रीय मंच पर पहुंचा।राज कुमार की चिंता यह थी कि अगर वह बाजार की शार्क को विराट हार गया। जब भारत अंडर -19 2006 में कोलंबो में विश्वकप फाइनल खेल रहा था, तो टीम होटल को संभावित वाणिज्यिक मूल्य वाले खिलाड़ियों को साइन अप करने के लिए एजेंटों द्वारा घिरा हुआ था। राज कुमार इन बाजार बलों से विराट की रक्षा करना चाहता था। ऐसा नहीं है कि उन्होंने अपने छात्र की प्रतिबद्धता पर संदेह किया, लेकिन लड़का बहुत छोटा था। विचलन संभव था। उनकी खुशी के लिए, वे विराट के शब्दकोश में मौजूद नहीं थे। विराट ने अपने कोच को आश्वासन दिया था, 'आपको मेरे बारे में हानिकारक रिपोर्ट नहीं मिलेगी, और वह अपने वादे पर अटक गया। दिल्ली क्रिकेट ने प्रतिभाशाली खिलाड़ियों की एक धारा बनाई है, जिन्होंने कड़ी मेहनत और दृढ़ता के माध्यम से शीर्ष पर अपना रास्ता खोजा है। रमन लांबा, मनोज प्रभाकर, अजय शर्मा, मनिंदर सिंह, अतुल वासन और केपी। भास्कर, शुरुआती युवाओं में से थे, जिन्होंने प्राप्तकर्ताओं और अधिकारियों से भरे ड्रेसिंग रूम में अपनी जगहें सुरक्षित की थीं। वीरेंद्र सहवाग ने बाद में और भी उत्कृष्टता के लिए मार्ग प्रशस्त किया और आशीष नेहरा, विजय दहिया, मिथुन मनहास, गौतम गंभीर, अमित भंडारी और रजत भाटिया जैसे उनके समकालीन राज्यों ने गर्व किया। उन्होंने शिखर धवन, विराट, ईशांत शर्मा और अनमुक चंद जैसे महत्वाकांक्षी युवा बंदूकें का पालन करने के लिए विरासत छोड़ी। वह विराट भारतीय क्रिकेट की सेवा करने के लिए नियत था, कभी भी अपने कोच द्वारा संदेह नहीं किया गया था। हालांकि, अगर मैंने विरेट की वृद्धि को पूर्ववत करने का दावा किया तो मैं झूठ बोलूंगा। उनकी प्रतिभा की विशालता धीरे-धीरे सामने आई। अपने करियर पर अनुवर्ती और रिपोर्ट करने का एक सुखद अनुभव रहा है, और इस कहानी को आपके कुछ समकालीन लोगों और खेल के भूतपूर्व स्वामीओं की आंखों और आवाज़ों के माध्यम से लाने के लिए आपका विशेषाधिकार है। कभी-कभी, उनके आक्रामकता ने दिल्ली सर्कल में अपनी वास्तविक शक्ति को पीछे छोड़ दिया। मैंने हमेशा ये कृत्यों को सोचा, विशेष रूप से गुस्से का बहादुर शो, हम जानते थे कि विराट का एक वास्तविक प्रतिबिंब नहीं था। वह एक बाध्यकारी प्रतियोगी था, जिसने एक इंच स्वीकार करने में विश्वास नहीं किया था। उनका समर्पण बेजोड़ सूरज के नीचे जाल में लंबे समय तक चल रहा था, केवल एक विशेष शॉट और अपनी तकनीक पर काम करने के लिए। उन्होंने शुरुआती वादे दिखाया जो सर्वोत्तम होने के लिए एक दृढ़ संकल्प में विकसित हुआ। अपने कोच की असंख्य आंखों के तहत, विराट ने अपने क्रिकेट को महत्व देना सीखा। अगर उनके निर्धारित मार्ग से एक छोटा सा विचलन था, तो विराट को कभी-कभी राजकुमार ने अपने गालों को 'स्क्वायर-कट' के साथ कठोर रूप से कठोर रूप से कठोर कर दिया था। अठारह वर्ष की उम्र में विराट अपने पिता प्रेम प्रेम कोहली को हारने के बाद राज कुमार की तरफ देखना शुरू कर दिया। वरिष्ठ कोहली ने भारत के रंगों में अपने बेटे की कल्पना की थी, और राज कुमार को विराट को पोषित करने की स्वतंत्रता और जिम्मेदारी दी गई थी, जो विश्व स्तरीय क्रिकेट खेलने के सपने के साथ पश्चिम दिल्ली क्रिकेट अकादमी में पहली बार चले गए थे। मुझे जीवन के सभी क्षेत्रों से क्रिकेटरों के साथ बातचीत करने का विशेषाधिकार मिला है- लोकल, घरेलू और अंतरराष्ट्रीय- और विराट एक निश्चित युवा व्यक्ति के रूप में सामने आया है, जो दुर्लभ लालित्य का एक उपभोक्ता बल्लेबाज है, जिसने अपने आश्वासन के साथ अपना मुद्दा बनाने की कोशिश की चैंपियन। वह अपने तरीके से एक चैंपियन था। उन्होंने सहवाग से आत्मविश्वास से मिलान किया, और कभी भी लाइन को पार नहीं किया, घुसपैठ करने के बजाय दूरी से निरीक्षण और सीखना पसंद किया। मैंने बहुत कम क्रिकेटरों को इस दृष्टिकोण के साथ देखा है कि विराट अपने क्रिकेट में लाता है। आईपीएल मैच के दौरान गौतम गंभीर के साथ उनकी मौखिक स्पॉट, वह बिंदुओं को झूठ बोलने में चीजें नहीं ले पाएंगे। हालांकि, वह कभी भी अपनी प्रशंसा दिखाने का मौका नहीं खोएगा। अपने तथाकथित ब्रश व्यवहार के बावजूद, एक आत्मविश्वास बढ़ाने की चाल के बावजूद, मैं विराट के वरिष्ठ क्रिकेटरों के सम्मान के लिए प्रतिबद्ध हो सकता हूं। उनके वरिष्ठ नागरिकों, उनके कोच, या उनके परिवार के प्रति उनका सम्मान, विराट के व्यक्तित्व की एक विशिष्ट विशेषता है। ड्रेसिंग रूम में सोफे पर कभी नहीं देखा गया था कि सीनियर मौजूद थे या नहीं। विराट मूर्खों को खुशी से पीड़ित नहीं करता है। यहां तक ​​कि एक खिलाड़ी के कप्तान मंसूर अली खान पतौड़ी ने मूर्खों से पीड़ित होने से इनकार कर दिया। कप्तान के रूप में, विराट ने महान प्रतिभाओं में से एक के रूप में उभरने के लिए अपनी प्रतिभा के पर्याप्त संकेत दिए हैं। वह अनुकूल है, हमेशा सुझावों के लिए ग्रहणशील है, एक लड़ाई प्यार करता है, और खुद को उत्कृष्टता के लिए ले जाता है। समकालीन क्रिकेट में उनके जैसे कुछ हैं, जिन्होंने टीम को पहले रखा था। उन लोगों के लिए जिन्होंने उन्हें आक्रामक और प्रदर्शनकारी होने के लिए प्रेरित किया, उनकी वृद्धिविश्व क्रिकेट में एक शानदार वापसी है। मैदान पर हर उपलब्धि के बाद उनका उत्साहजनक उत्सव सिर्फ उनके लिए एक अनुस्मारक है कि वह यहां रहने के लिए है। उनके पास हितों की एक विस्तृत श्रृंखला है, पढ़ना दुर्भाग्यवश एक जगह नहीं ढूंढता है, लेकिन वह आधुनिक क्रिकेट का एक शक्तिशाली ब्रांड एंबेसडर है। वह कड़ी मेहनत और फिटनेस के लाभ के महत्व का प्रतीक है। उनके आहार चार्ट और एक दंडित फिटनेस शेड्यूल विश्व क्रिकेट में उनके अद्भुत कद के रहस्य हैं। विराट शायद ही कभी दिल्ली के लिए रणजी मैच खेले हों, लेकिन उनका दिल उनके राज्य के साथियों के लिए धड़कता है। हर संभव मौके पर, जब आप एक छोटे से ब्रेक के लिए घर जाते हैं, तो आप उसे फिरोजशाह कोटला में भागते हुए और ड्रेसिंग रूम बालकनी से अपनी टीम को खुश कर सकते हैं। अगर वह शहर में है और दिल्ली खेल रहा है तो वह कोटला से दूर नहीं रह सकता है। वह कभी भी दिल्ली क्रिकेट को अपने करियर को आकार देने में भूमिका निभाते हुए खुद को याद दिलाने की टायर नहीं करता। वह अपना आभार व्यक्त करना पसंद करेंगे, लेकिन व्यस्त अंतरराष्ट्रीय कार्यक्रम के लिए जो उन्हें घरेलू क्रिकेट से दूर ले जाता है। पिछले कुछ वर्षों में मैंने खेल के प्रति अपने दृष्टिकोण के संदर्भ में विराट में भारी बदलाव देखा है। उनके पास भारतीय क्रिकेट का एक दृष्टिकोण है। वह उसी भावना में खेल की सेवा करने पर केंद्रित है जो क्रिकेट में कुछ महान लोगों की विशेषता थी। वह क्रिकेट और पिछले मालिकों की पूजा करता है, जिससे अपने इतिहास को समझने के लिए हर संभव प्रयास किया जाता है और यह उस उत्कृष्ट स्थिति को देता है जो इसके लायक है। सुनील गावस्कर और बिशन सिंह बेदी के समय से क्रिकेट एक लंबा सफर तय कर चुका है, जब एक ड्रॉ जीत के रूप में अच्छा था। विराट आधुनिक क्रिकेटर का प्रतीक है, एक आदमी अपने दर्शकों को जीतने और मनोरंजन करने का संकल्प करता है। वह क्रिकेट के एक नए ब्रांड, सकारात्मक और गहन के लिए एक प्रतीक है। ऐसे कुछ खिलाड़ी हैं जो खेल में विराट के रूप में शामिल हैं। उनके दोस्तों का कहना है कि जानकारी को आत्मसात करने की उनकी शक्ति असीमित है। वह सबकुछ के बारे में सब कुछ जानना चाहता है, और कारों, नए व्यापार के अवसरों और बाजार पर चर्चाओं पर अनदेखी बातचीत में लगाया जा सकता है। हाल के क्रिकेट प्रवृत्तियों पर ज्ञान हासिल करने का उनका जुनून उन्हें पर्यटन के दौरान बंद दिनों में व्यस्त रखता है, जबकि उनके अनुशासन में फिट रहने के लिए अविश्वसनीय है। कुछ भी उसके संकल्प को हिला नहीं सकता है। समोसा और पकोरा (गहरा तला हुआ नाश्ता) के लिए भी उसका प्यार नहीं। वह पूरे दिन कोक पीने के लिए जाना जाता था। अब, उन्होंने खुशी से उन सभी को त्याग दिया है। वह खाने में स्वस्थ संतुलन बनाए रखने के लिए बादाम और ग्राम खाता है, न कि सामन और चॉकलेट के लिए अपने प्यार को भूलना। मैं आश्चर्यचकित नहीं हूं जब उनके समकालीन लोग जोर देते हैं कि वह पुराने संबंधों का 'बहुत सम्मानजनक' है। जब वह अपने जूनियर दिनों से क्रिकेटरों में भाग लेता है तो उसके पास सुपरस्टार की हवा नहीं होती है। विस्तार पर उनका ध्यान अद्भुत है। विदेशों में नाइके कारखाने की यात्रा से लौटने के बाद हम एक बार मिले, और उन्होंने खेल से संबंधित हर पहलू की एक ज्वलंत तस्वीर प्रस्तुत कीउपकरण निर्माण। वह अपनी छोटी यात्रा के दौरान इकट्ठा करने और इकट्ठा करने वाली जानकारी के आधार पर अपने आप का एक उद्यम स्थापित कर सकता था। विराट ने अपने खेल पर कैसे काम किया है, वह खुद की एक भव्य कथा है, जिसे वह एक दिन लिखना पसंद कर सकता है। वह एक निरंतर विकसित व्यक्ति है - एक भयानक भयानक भूमिका मॉडल और एक ब्रांड एंबेसडर से भयानक, युवा और बूढ़े को प्रेरणा देता है। मैदान में और बाहर उसे शामिल करने वाली कुछ दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं थीं, लेकिन वह जल्दी और आगे बढ़ने के लिए जल्दी था। कप्तान की ज़िम्मेदारी ने उनके लिए चमत्कार किया है, क्योंकि वह अब परिपक्व नेता के रूप में आता है। विराट ने हमें बल्लेबाजी पर एक नया नया परिप्रेक्ष्य दिया है। वह एक तकनीशियन का चमत्कार है और एक शुद्धवादी की खुशी है। वह एक ट्वेंटी -20 मैच में प्रवाह के साथ खेल सकते हैं, छह छक्के मारने के बिना शतक प्राप्त कर सकते हैं, उचित क्रिकेट शॉट खेल सकते हैं, और अविश्वसनीय रूप से, जैसा कि हमने 2016 आईपीएल में देखा था, एक हाथ में चोट के बावजूद इस तरह की शानदार जीत हासिल की। उन्होंने किंग्स इलेवन पंजाब के खिलाफ एक जीत-जीत की स्थिति में शतक लगाने के लिए अपने अलग बाएं वेबबिंग पर कई सिंचन के साथ बल्लेबाजी की। विपक्ष सहित स्टेडियम ने उन्हें एक स्थायी उद्घोषणा दी।

MANN KI KHUSHI

                       मन की खुशी 

नीटू ने एक दिन एक मैदक पकड़ा।चुपचाप
आकर अपने सहपाठी साजन के
बैग की जेब में डालकर जिप लगा
दी। उस समय सभी छात्र मैदान में
खेलने गए हुए थे। अब अगले पीरियड की
पटी बजी तो सभी छात्र अपने-अपने बैंच पर
आकर बैठ गए।
ज्यों ही साजन उसी जेब से पैसिल निकालने लगा
तो मेढक फुदक कर एकदम बाहर आया ।साजन
पवरा गया और अपने बैंच से गिरते-गिरो बचा
कक्षा में शोर मच गया।
"अरे यह भेंढक कहां से आया?" किसी ने पूछा।
जवाब दिया।
‘साजन के बैग से निकला है।'' दूसरे छात्र ने
साजन आंसा होकर कह रहा था, ''मेरे बैग को
जेब में जिस किसी ने इस मेंढक को बंद किया
था। मैं उसकी सर के पास शिकायत करुंगा।"
यह सुनकर शैरी बोला, "किस की शिकायत करोगे?
विनोदी स्वभाव का निरंजन भी झट से बोला, ''अरे
क्या तुम्हें पता है कि यह शरात किस ने की है?"
देखो दोस्तो, अयं मेंढक भी पढ़ने के लिए स्कूल
आया करेंगे। यह पहला स्टूडेंट है यानी हमारी
सहपाठी। अरे देखो तो सही, कैसे फुदकता जा
रहा है? लगता है पहले दिन ही अपना बैग घर
भूल आया है, लेने जा रहा है।"
कक्षा में ठहाका गंज पड़ा।
शांत हो गया। जिस किसी ने उसके साथ ऐसी
तभी अध्यापक जी ने कक्षा में प्रवेश किया। शोगुल
रह कर गुस्सा आ रहा था।
बेहूदा शरारत की थी, साजन को उस पर रह
आखिर बिल्ली थैले से बाहर आ ही गई। पता
चला कि यह नौटू की शरारत थी। उसे मुर्गा
बनाया गया।
ऐसा कर चुका था। एक दिन खेल का पौरियड
यह पहली दफा नहीं था, नीट पहले भी कई बार
चल रहा था। कुछ बच्चे अलग-अलग खेल
खेलने में व्यस्त थे और कुछ गप्पें हांक रहे थे।
नीटू कोई खास काम करने के मूड में था।
उसने देखा, मैदान में शहतूत के वृक्ष पर एक
हुए हैं।
फाला के घोंसले में दो छोटे-छोटे बच्चे बैठे। ‘वाह !'' नीटू के मुंह से निकला। उसने आव
देखा न ताव । झटपट वृक्ष पर चढ़कर दोनों
बच्चों को घोंसले से उठा लिया। दोनों बच्चों
की आंखें अभी खुली नहीं थीं। उसने इस बारे
किसी को कानों-कान खबर तक न होने दी।
नीटू ने दोनों बच्चों को अपने बैग की जेब में डाल
लिया। जब छुट्टी हुई तो वह उन बच्चों को घर
ले आया।
“आओ मा, तुझे कुछ दिखाऊं।'' नीटू ने अपनी
छोटी बहन रमा से कहा।
रमा तत्काल बोली, ''मैं जानती हूं। कोई न कोई शरारत ही करके दिखागा।''
नीट ने अपने बैग की जेब खोली।
मा ने गेय के अंदर इसका, फाख्ता के दो मासूम
बच्चे लुढ़के से पड़े थे।
''अरे मूर्ख, यह तुम ने क्या किया? ये मर जाएंगे।
कहां से उठाकर लाए ही इन मासूमों को?"
नीटू ने उन दोनों बच्चों को बाहर निकाला। अपनी
हथेली पर रखा। और गाने लगा, "ये बच्चे
प्यारे प्यारे, हैं मेरी आंख के तारे।ये बच्चे प्यारे
प्यारे हैं मेरी आंख के तारे।''
"अभी मम्मी को बताती हूं।'' रमा एकदम उठकर
रसोई में आने लगी जहां मम्मी चाय बना रही थी।
नीटू ने एकदम उसकी राह रोकते हुए कहा, ''रमा,
प्लीज मम्मी को मत बताना । मुझे डांट पड़ेगी।''
"तो तुमने ऐसा क्यों किया? इनकी तो अभी आंखें
झांटते हुए कहा।
भी नहीं खुली हैं। यह पाप है।'' रमा ने उसे
|-दर्शन सिंह 'आशट

'मा, वास्तव में में इन्हें बेचने के लिए उठा कर
लाया है।"
"क्या!बेचने के लिए इन मासूम बच्चों को, जिनकी
अभी आंखें तक नहीं खुली हैं। किस को बेचोगे।
इन्हें ?कितने लाख करोड़ रुपए मिल जाएंगे तुम्हें?''
रमा सवाल पर सवाल कर रही थी।
नीटू ने बताया कि उसके पड़ोसी दोस्त पिट को
पक्षियों के बच्चे बहुत अच्छे लगते हैं और वह
अपने घर में भान्ति-भान्ति के बच्चों को पिंजरों
में रखना चाहता है ताकि उस के घर में पक्षियों
की चहचहाट होती रहे।
नीटू ने एकदम दोनों बच्चों को फिर अपने बैग
की जेब में रख लिया और आंखों ही आंखों में
रमा को यह सब कुछ मम्मी को न बताने का
अनुरोध किया।
"कितने पैसे मिलेंगे तुम्हें पिंटू से?''
'बीस रुपए।''
उन बीस रुपयों का क्या करोगे?''
"दो चाकलेट लाऊंगा। एक मेरे लिए और एक
तुम्हारे लिए।"
"वैरी गुड। वैरी गुड़। बहुत अच्छा बिजनैस करने जा रहे हो।'' अचानक ही तालियों की आवाज सीखा है?'' पापा सकते में आ गए।
के साथ यह बोल नीट और रमा के कानों से ''मैं अब तक तुझे जेब खर्च देता आ रहा हूं। लेकिन
टकराए। उनके पापा पर्दे के पीछे कुर्सी पर बैठे इसके बावजूद तुमने ऐसी हरकत की है। इसलिए
पढ़ने-लिखने का कोई काम कर रहे थे। उन आज से तुम्हारा जेब-खुर्च बंद।" पापा ने यह
की बातें उन्हें साफ सुनाई दे रही थीं। उन्होंने बात कही तो नीटू का रंग उड़ गया।
चुपके से थोड़ा-सा पर्दा उठाकर यह सारा तब तक मम्मी भी चाय लेकर आ गई थीं। जब
दृश्य देखा। उन्हें इस बात का पता चला तो उन्हें यह घटना
पापा उठ कर उनके पास आ गए। सुनकर आघात पहुंचा।
अपनी जीभ के स्वाद के लिए इन बच्चों को मां मम्मी ने नीटू से कहा, ''बेटा, मुझे तुमसे ऐसी
मे विछोड कर किसी को बेचना तुमने कहां से उम्मीद नहीं थी। क्या स्कूल में ऐसी शरारतें करने के लिए जाते हो?
"मम्मी, यह तो मैंने मजाक में कहा था रमा से कि
पिंटू को बेचने हैं। मैं तो बस मजाक मजाक
में उठा लाया हूं।''
""ऐसा मजाक?''यदि कोई तुझे हम सब से अलग
करदे तो तेरी क्या हालत होगी सोचा है कभी?"
नीटू ने कल्पना की। सचमुच ही उसे कोई दूर ले जाए
जहां कोई भी उसे जानने वाला न हो तो उसके
साथ क्या बीतेगी? वह मन ही मन कांप गया।
जमीन पर पड़े दोनों बच्चे लुढ़कने से लगे। लग
रहा था जैसे वह अपनी मां को ढूंढ रहे थे।
"अब तुमने इन बच्चों का क्या करना है, ये फैसला
हम तुझ पर ही छोड़ते हैं।'' मम्मी ने कहा।
'आगे से ऐसा नहीं करूंगा मम्मी। अभी इन बच्चों
को घोंसले में रख कर आता हूं।''
रमा ने कहा, ''स्कूल दूर है। चलो मैं तुम्हें अपनी
साइकिल पर लेकर चलती हूं। तुम बच्चों को
ध्यान से पकड़ कर मेरे पीछे बैठो।''
नीटू ने देखा, शहतूत की एक शाखा पर फाख्ता
घबराई हुई इधर-उधर देख रही थी। नीटू ने
दोनों बच्चों को फाख्ता के घोंसले में रख दिया।
कुछ समय बाद जब नीटू घर आया तो मम्मी
पापा उसके हाथ में मिट्टी का एक पात्र देखकर
हैरान रह गए। रास्ते में घुसे उसने बीस रुपए
का यह पात्र खरीदा था।
नीटू ने पात्र को पानी से भरा और घर की मुंडेर पर
रख आया।
अगले दिन नीटू ने सुबह जाकर देखा, दोनों बच्चे
अपनी मां-फाख्ता के पंखों के नीचे बैठे हुए थे।
नीटू ने मन ही मन कहा, ''अब मुझे फाख्ता-मां
के पास उनके बच्चों को देखकर जो खुशी मिल
रही है, मैं उसे बयान नहीं कर सकता।''

Monday 2 July 2018

WHY I FAILED LESSION FROM LEADERS

                                Introduction
विफलता, फिर विफलता! तो दुनिया हर मोड़ पर हमें टिकट देता है। हमने अपने व्यवसायों के लिए अपर्याप्तता के सभी स्मारकों के साथ, हमारे गलतियों, हमारे बुरे कर्मों, हमारे खोए अवसरों के साथ इसे आकर्षित किया। और इसके साथ क्या एक जोरदार जोर देता है तो हमें बाहर निकाल दो!
                                                             William James

असफलता का डर एक बाधा नहीं है जो अक्सर हमें जो चाहते हैं उसे प्राप्त करने से रोकता है और बनना चाहता है कि हम कौन बनना चाहते हैं? विफलता इतनी गलत क्यों महसूस करती है? अनुचित? हतोत्साहित? असफल होने के लिए यह इतना चोट क्यों पहुंचाता है? विफलता सड़क के अंत की तरह क्यों लगती है? विफलता मौत से भी बदतर महसूस कर सकती है। याद रखें 'मैं क्यों मर नहीं गया?' महसूस कर रहा है? कुछ असफलताओं ने हमें मार डाला है और उनमें से कई हमें धूल काटने के लिए चाहते हैं। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि इतने सारे लिखे गए हैं और कहा कि कैसे विफलता के साथ 'सामना' कर सकता है। यह अप्रचलित, उल्टी, और पचाने में मुश्किल है। यह एक सांस्कृतिक चीज भी है। भारत में, हम बहुत निराशाजनक और असुविधा के साथ विफलता को देखते हैं। इस क्षण से हम असली दुनिया में कदम रखते हैं, इसलिए बोलने के लिए, यह हमारे अंदर शामिल है कि हमें हमेशा सब कुछ में सफल होना पड़ता है। हम असफल नहीं हो सकते हैं। इतिहास केवल विजेताओं की सराहना करता है। अगर हम भारत के इतिहास के कालक्रम के ढांचे को देखते हैं, तो यह विजेताओं के बारे में है। लड़ाई, धार्मिक संस्थानों की समाप्ति, शिलालेखों की तिथियां वहां हैं क्योंकि जो लोग 'विजेता' थे, शक्तिशाली, मानते थे कि उन अभिलेखों को संरक्षित करना महत्वपूर्ण था। लेकिन जैसा कि कई इतिहासकारों ने दोहराया है, हम जो कुछ भी भारतीय इतिहास के बारे में जानते हैं वह वह सब कुछ नहीं है जिसे हम जान सकते हैं। ऐतिहासिक रिकॉर्ड हमें राजाओं, शक्तिशाली, विजेताओं के बारे में और बताते हैं। यह आश्चर्य की बात है कि ऋषि रायका (एक बेघर बैल गाड़ी चालक) की कहानी उपनिषद-ब्राह्मणों के पाठ में उद्धृत की गई थी। राजा जनसुरुति ने अपने लोगों पर विजय पाने के लिए रायका की मदद मांगी। यहां आश्चर्य की बात यह नहीं है कि रायका ने राजा को जीतने में मदद की, लेकिन उन्होंने उपनिषदों में उल्लेख किया जो मुख्य रूप से ब्राह्मण अभिजात वर्ग के बारे में है। आमतौर पर विफलता को याद रखना असंभव है या भूलना असंभव है। एवरडे लाइफ के साइकोपैथोलॉजी में सिगमंड फ्रायड एक अनुभव बताता है: एक बार, अपने मासिक खातों को सुलझाने के दौरान, फ्रायड एक ऐसे मरीज़ के नाम पर आया जिसकी केस इतिहास वह याद नहीं कर सका, भले ही वह देख सके कि वह हर दिन उसके पास गया था कई हफ्ते पहले, सिर्फ छह महीने पहले। उसने रोगी को याद रखने के लिए बहुत मेहनत की कोशिश की, जब तक कि स्मृति अंततः उसके पास वापस न आए। सवाल में रोगी एक महिला थीमाता-पिता ने उसे अंदर लाया क्योंकि उसने लगातार पेट दर्द की शिकायत की थी। फ्रायड ने उसे हिस्टीरिया के साथ निदान किया। कुछ महीने बाद, वह पेट के कैंसर से मर गई। इस पुस्तक पर काम करने के दौरान, जब मैं दोस्तों, परिवार या यहां तक ​​कि कंपनियों के वरिष्ठ अधिकारियों को विषय समझाऊंगा, तो अधिकांश लोग यह कहकर जवाब देंगे: 'विफलता क्यों? आप विफलता जैसे विषय क्यों चुनेंगे? 'और यही वह प्रतिक्रिया है जिसकी मैं उम्मीद कर रहा था और उम्मीद कर रहा था। विफलता, सफलता की तरह, हर किसी के लिए नहीं है। यह पुस्तक उन लोगों की कहानियों के चारों ओर बनाई गई है जो कभी-कभी बार-बार खराब हो जाते हैं। इन कहानियों में कल्पना, गलतफहमी, भ्रम, दुर्भाग्य, महत्वाकांक्षा, प्रेम मामलों, प्रेरणा, और सबसे महत्वपूर्ण साहस शामिल हैं। प्रत्येक कहानी कई स्तरों पर रहस्यमय है, अलग-अलग डिग्री और किस्मों की असफलताओं की खोज, पहले बड़े अवसर पर गड़बड़ाना, नौकरशाही और भक्तिवाद, जीवन की परिस्थितियों में विफलता में विफल होने, नेतृत्व करने में विफल होने और दूसरों को आपकी दृष्टि का पालन करने में असफल रहा- हर अध्याय प्रस्ताव एक अलग तरह की विफलता की अंतर्दृष्टि। अक्सर, विफलता को पहचानने का अनुभव जीवन-परिवर्तन, चौंकाने वाला, हास्यास्पद, सुखद, कैथर्टिक, रोशनी और भ्रमित हो सकता है। प्राप्ति प्रक्रिया आमतौर पर हमें अपने साथ बाधाओं में डाल देती है। विफलता के बाद, हम खुद से सवाल करते हैं, हमारी क्षमताओं: 'मैं यह कैसे कर सकता था?' 'मैं क्या सोच रहा था?' 'क्या मैंने वास्तव में ऐसा किया?' लेकिन, बस एक पल के लिए, यदि आप चोट पहुंचाते हैं , चोट, असफलता से जुड़े अपमान - और इसके लिए आपकी विफलता का मूल्यांकन - प्रक्रिया सफलता से कहीं अधिक परिभाषित हो सकती है। चाहे हम इसे स्वीकार करें या नहीं, विफलता अक्सर हमें स्पष्ट रूप से सोचने में मदद करती है। यह हमें विश्लेषण और बेहतर योजना बनाने के लिए मजबूर करता है। जीतने और विफलता को कम करने के लिए एक अंतर्निहित प्रवृत्ति है। लेकिन विफलता की दिशा में ऐसी शत्रुता के बीच भी, वे लोग हैं जो उपहार में विफल होने पर विचार करते हैं। आपको सफल होने में विफल होने की आवश्यकता है वास्तव में एक ऑक्सीमोरोन नहीं है। इस पुस्तक को लिखना मेरे लिए एक रहस्योद्घाटन रहा है। इसने मुझे विफलता के बारे में अपनी भावनाओं को दृढ़ता से तलाशने के लिए मजबूर किया। मैं आपका उत्कृष्ट भारतीय हूं जो सफलता चाहता है लेकिन असफल होने के दर्द के बिना। मैथ में पहली बार विफल होने के बाद, उसने मुझे एक विषय छोड़ दिया जिसने मुझे चिंतित किया था। संख्याएं आकर्षक हैं, लेकिन यह फिर से विफल होने का डर था जिसने वास्तव में कोशिश करने के जादू को दूर कर लिया। और यह उन कई बारों में से एक है जहां मैंने विफलता के डर के लिए वापस कदम रखा है। असफल होने से जुड़ी पीड़ा आपको दूर जाने के लिए काफी परेशान हो सकती है। पुनरुत्थान विफलता जीवन में बहुत जल्दी शुरू होती है। हमारे द्वारा चुने गए विषयों के लिए, हम जिन विषयों को चुनते हैं, उनके लिए हम जो चुनते हैं, उससे हम सोचते हैं-अगर हम इसके बारे में सोचते हैं-सभी आंतरिक रूप से असफलता से जुड़े होते हैं। मैं किसी ऐसे व्यक्ति को जानता हूं जिसने अपने साथी समूह के साथ फिट होने के लिए वायलिन खेलना छोड़ दिया। यह असफल होने की हमारी क्षमता को कमजोर करने में 'फिट' करने की आवश्यकता है।लेकिन फिर, हमारी सांस्कृतिक कंडीशनिंग के साथ भी, उन लोगों की कहानियां हैं जिन्होंने अपनी असफलताओं में सफलता के लिए व्यंजनों को पाया है। भारतीय व्यवसाय दुनिया के सबसे कठिन वातावरण में से एक में काम करते हैं। निरंतर नीति फ्लिप-फ्लॉप, ढीले नियामक ढांचे, और अपर्याप्त बुनियादी ढांचे केवल कुछ चुनौतियां हैं; इसके अलावा भारतीय मानसिकता है जो जीवन में बहुत जल्द उद्देश्य की स्थिरता और स्पष्टता पर बहुत अधिक जोर देती है। एक समाज जो हमें बक्से में फिट करने के लिए मजबूर करता है-इतना इतना है कि असफल होने के लिए कोई जगह नहीं है। लेकिन फिर ऐसे बाहरी लोग हैं, जो दूरदर्शी नहीं हो सकते हैं, और इस तरह वे देश के कुछ सबसे बड़े निगमों को चला चुके हैं और उन्होंने भारत के आर्थिक प्रक्षेपवक्र में से एक से अधिक तरीकों से परिभाषित किया है। रिलायंस इंडस्ट्रीज के भारत के सबसे बड़े समूह के संस्थापक धीरूभाई अंबानी ने उस समय कंपनी का निर्माण किया जब पूंजीगत लागत इतनी अधिक थी कि ज्यादातर कंपनियां गैर-लाभकारी या असफल हो जाएंगी। लेकिन धीरूभाई ने अंततः सफल होने तक सपने देखना, असफल होना, सपना देखना जारी रखा। सोलह विफलता, उर्फ ​​सफलता, इस पुस्तक में पुरानी कहानियां विफलता पर वार्तालाप शुरू करने का प्रयास है, किताब को पढ़ने के लिए किताब को पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए, अपने सपने को सफलता के प्यार के लिए नहीं बल्कि विफलता के साहस के लिए प्रोत्साहित करने का प्रयास है। , दूसरों को उस जीवन को तय करने न दें जिससे आप विफलता के डर के लिए जीना चाहते हैं। भारत आज उद्यमशील ऊर्जा और नए विचारों से भरा हुआ है। निजी क्षेत्र बढ़ रहा है, मध्यम वर्ग बढ़ रहा है, अधिक से अधिक युवा लोग कार्यबल में शामिल हो रहे हैं। और दिलचस्प बात यह है कि युवा अपने आप को कोशिश करने और परीक्षण के कोकून तक सीमित नहीं करने के लिए बेचैन हैं। वे बाहर निकल रहे हैं और अपनी नियतियां सूचीबद्ध कर रहे हैं। यह पुस्तक हम सभी के लिए है जो लगातार 'क्या हो सकता है' के बारे में सोचते हैं। यह उन कॉर्पोरेट लोगों के लिए है जो विफलता से सीखने पर विश्वास करते हैं, यह बहुत सरल है-लोगों से क्या उन्होंने गलत किया है और भविष्य में इसी तरह की गलतियों से परहेज करने पर जोर देने के लिए कहा है। यह उन सभी उद्यमियों के लिए है जिन्होंने अपना रास्ता चुना है और कम से कम कहने के लिए भारतीय संदर्भ में इतनी परेशानी होगी, और अधिक यात्रा की शुरुआत की है। हीरोज्म हार का एक द्वि-उत्पाद है। यह एक विशेषता है, एक गुणवत्ता जो दुर्भाग्य और पीछे की ओर देखकर प्राप्त की जाती है। यहां वर्णित लगभग सभी कहानियां दुर्भाग्य और वीरता का एक प्रमुख मिश्रण हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी रूजवेल्ट ने इस सशक्त जीत अभियान को उठाया था, जो उन्हें अमेरिकी राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार द्वारा अब तक के सबसे थकाऊ राष्ट्रीय भाषी दौरे के माध्यम से ले गया था; उन्होंने शिशु पक्षाघात के रूप में अपनी दुर्भाग्य या हार का अनुभव किया, एक लोकोमोटिव विफलता जिसे उन्होंने प्रतिशोध के साथ वापस लड़ा क्योंकि वह अथक यात्रा करते थे। आपको यहां कई कहानियां मिलेंगी जहां सफल होने के लिए दुर्भाग्य भी सबसे बड़ी प्रेरणा रही है। जैसा कि कन्फ्यूशियस ने कहा, 'हमारी सबसे बड़ी महिमा कभी विफल नहीं होती है, लेकिन हर बार जब हम गिरते हैं तो बढ़ते हैं।' दुनिया भर में इतिहास असाधारण विफलताओं द्वारा संचालित असाधारण दिमागों द्वारा किया गया है। हंसमुख रहो, अपनी आंखों को मिटाओ; कुछ गिरने का मतलब उदय के लिए खुश है। विलियम शेक्सपियर, साइम्बलाइन। एक्ट चतुर्थ, दृश्य ii यह कोशिश करने और असफल होने के लिए हमेशा बेहतर होता है, बिल्कुल प्रयास नहीं किया जाता है। मुबारक विफल, हर कोई!'... सच यह है कि, एक प्रतियोगिता में, आप का सबसे कमजोर हिस्सा सबसे आगे आता है!
                           ABHINAV BINDRA

अभिनव बिंद्रा ने इतिहास बनाया जब उन्होंने 2008 में ओलंपिक में भारत का पहला व्यक्तिगत स्वर्ण पदक लाया। शूटिंग के साथ उनका रिश्ता अपने जुनून और उथल-पुथल के साथ एक जुनूनी प्रेमी की तरह है। सोना जीतने के बाद, बिंद्रा शूटिंग छोड़ना चाहता था, एक बिंदु था। बाकी, जो वे कहते हैं, इतिहास है । उन्हें भारत में पद्म भूषण में भारत के सबसे प्रतिष्ठित नागरिक पुरस्कार से सम्मानित किया गया है।

मन मनुष्य है। भगवत गीता मानव मस्तिष्क की स्थिति और व्यक्ति पर इसका प्रभाव सबसे स्पष्ट और उपयुक्त तरीके से बताती है। अक्सर, हम एक महत्वपूर्ण पल में एक विशेष कार्रवाई करने में हमारी असमर्थता पर बेवकूफी छोड़ दिया जाता है। संभवतः गलत क्या हो सकता है, हम आश्चर्य करते हैं। हमारे जीवन में किसी भी समय हम सभी उस बिंदु या चरण के माध्यम से होते हैं जब कुछ सत्य के उस विशेष क्षण में हमें विफल करता है। एक बिंदु आता है जब यह अकेले ज्ञान या कौशल के बारे में नहीं है, लेकिन जब यह सबसे महत्वपूर्ण है तो सही संतुलन ढूंढना। अक्सर यह मन और शरीर की उस छिपी हुई संतुलन है जो हमें सफलता या विफलता की ओर अग्रसर करता है। दुनिया हमारी सफलताओं या असफलताओं को पहचानने से पहले, हम व्यक्तियों के रूप में महत्वपूर्ण ड्राइवर हैं और जो हम सोचते हैं उसका सर्वश्रेष्ठ न्यायाधीश हमारी सफलता या विफलता का गठन करता है। एक व्यापारी या व्यवसायी के लिए, सफलता का मतलब सही निवेशक ढूंढना या सही मार्केटिंग रणनीति को क्रैक करना या प्रतिस्पर्धा से पहले एक उत्पाद लॉन्च करना; एक कलाकार के लिए यह व्यक्त करने के लिए कि वह क्या कहना चाहता है उसे व्यक्त करने के लिए यह सही प्रेरणा प्राप्त हो सकती है; एक खिलाड़ी के लिए शायद यह आखिरी स्ट्रोक, आखिरी हड़ताल, जो 'सोने' के लिए जीत जीत रही है।
* चिड़िया की आंख-:

गीता दिमाग के दो अलग-अलग पक्षों के बारे में बात करती है: एक उत्तेजना की दुनिया का सामना करना पड़ता है जो दुनिया की वस्तुओं पर प्रतिक्रिया करता है, और दूसरा उस उत्तेजना को प्रतिक्रिया देता है जो प्राप्त उत्तेजना को प्रतिक्रिया देता है। वस्तु का सामना करने वाले बाहरी दिमाग को उद्देश्य दिमाग कहा जाता है-संस्कृत में इसे मानस कहा जाता है, और आंतरिक मन को संस्कृत, बुद्ध में व्यक्तिपरक मन कहा जाता है। 1 गीता में वर्णित सही समतोल, तब होता है जब हमारे दिमाग का उद्देश्य और व्यक्तिपरक पहलू एकता में काम करते हैं। और संदेह के क्षणों में, उद्देश्य दिमाग आसानी से व्यक्तिपरक दिमाग के अनुशासन में आता है। दूसरे शब्दों में, जब बुद्ध लेते हैं तो मन की सही स्थिति होती है। हम सभी अपने जीवन में किसी बिंदु पर अर्जुन के दुःख से गुजर चुके हैं। जबकि हमें पक्षी की आंखों को देखने के लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है, वहीं कमजोरी के क्षण होंगे जब हम उससे परे देखेंगे, हम महिमा और इनाम से विचलित होंगे जो नौकरी या कार्य लाएगा। हालांकि अर्जुन युद्ध के एक स्वीकार्य व्यक्ति थे, जब उन्होंने सैकड़ों की कौरव सेना के खिलाफ युद्धक्षेत्र में प्रवेश किया, तो तनाव हवा में स्पष्ट था, और इसने अर्जुन की मन की स्थिति में अंतर्दृष्टि प्रस्तुत की। वह युद्ध शुरू करने के लिए अधीर था; वह अपनी महान साहस और उसकी अपरिवर्तनीय ऊर्जा दिखाने के लिए तैयार था। गीता के मुताबिक, इस पल में अर्जुन ने कौरवों की सेना को देखा, वहां उनके मानसिक संतुलन की पूरी तरह से टूट गई थी। क्या आप वहां मौजूद हैंअपने दिमाग में एक विभाजन था, उसने अब पक्षी की आंख नहीं देखी, उसके लिए एक विजयी अंत के लिए एक चिंतित इच्छा थी। उनका मन युद्ध के अंतिम छोर के बारे में सपने देखने के लिए व्यस्त था जिसका मतलब है कि उसके दिमाग के व्यक्तिपरक और उद्देश्य पहलुओं के बीच एक पूर्ण तलाक।
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