Brain exercise

Responsive Ads Here

POWER BANK FOR YOU

Tuesday 31 July 2018

Where is Malti?

         Where is Malti?

रमा देवी मालती के संग जब भजन स्थल पर पहुँचीं तब भजन का रंग खूब जमा हुआ प्रतीत हो रहा था। उस घाट पर इधर-उधर दूर-दूर तक लोगों की रेलपेल, भीड़-भड़क्का हो गया था। दिंडी भजन2 की तरह बड़े-बड़े झाँझरों के साथ पचास-पचहत्तर गोसाईं साधु-संत योगानंद को घेरकर संकीर्तन कर रहे थे। दस-बीस प्रमुख शिष्य पखावज, मृदंग, वीणा, झाँझर प्रभृति वाद्य-यंत्रों के साथ, ताल-सुर ठीक-ठाक पकड़कर योगी महंत के बिलकुल निकट तैयार बैठे हैं और बीचोबीच कभी बैठे-बैठे तो कभी भक्ति के आवेश में उठकर योगानंदजी ऊँची, बुलंद आवाज तथा तन्मय सुरों में भजन गा रहे हैं। सुदूर फैली हुई उस भीड़ में से ठेला-ठेली करके भीतर जाने की गुंजाइश ही नहीं थी। परंतु अन्नपूर्णा देवी के अनुरोध पर पहले से ही उन्हें महंत के मंदिर के आरक्षित स्थान पर बैठाने के लिए एक शिष्य नियुक्त किया गया था। उस शिष्य ने राह में ही उन्हें देखकर योगानंदजी की आज्ञानुसार तीनों को वहाँ लाकर बैठाया। इधर भजन अपनी चरम सीमा पर था। तुलसीदासजी के एक पद के चरण उन सैकड़ों भजनियों के सैकड़ों कंठों से परिपुष्ट बुलंद स्वर में गूँजते रहे— तुलसी मगन भए। हरिगुणगान में॥ मगन भए। हरिगुणगान में॥ध्रु.॥ कोई चढ़े हाथी घोड़ा पालकी सजा के॥ साधु चले पैंया-पैंया चिंटियाँ बचा के॥ मगन भए। हरिगुणगान में॥ तुलसी.॥ झाँझर की झनझनाहट से लहू की बूँद-बूँद थरथराने लगी। सारा समाज भक्ति रस में डूबा हुआ था, सराबोर। हरिनाम के सिवा अन्य कोई भी ध्वनि वहाँ सुनाई नहीं दे रही थी। परंतु क्या यह कहा जा सकता है कि एक-दूसरे को सुनाई नहीं दे रही थी या जिस-तिस को भी सुनाई नहीं दे रही थी—इस संबंध में भला कौन कह सकता है! इतने में उस शतकंठ निनादी स्वर को कुछ नीचे उतारकर योगानंदजी अकेले ही इतनी तन्मयता से गाने लगे कि शिष्यादि भजनी लोगों ने झाँझर को, जो सिर्फ हल्ला-गुल्ला, गुल-गपाड़ा ही कर रहा था, बंद करके करतालों के साथ गाना प्रारंभ किया। ‘तुलसी मगन भए। हरिगुणगान में’ यह चरण उलट-पुलटकर मधुर तथा धीमे स्वरों में गाते-गाते योगानंद उठकर खड़े हो गए। उस पद का अर्थ योगानंद स्पष्ट नहीं कर रहे थे। लेकिन जिन्हें उसका बोध हो रहा था वे उस भजन का अर्थ सुन रहे थे, जैसे उन्हें गागर में सागर मिला हो। इस जीवन की साधना हर कोई अपनी रुचि के अनुसार कर रहा है—हर कोई आनंद और सुख का पीछा कर रहा है—कोई भोग द्वारा, कोई योग द्वारा। जैसी जिसकी और जितनी जिसके मन की उन्नति वैसी उसकी रुचि—‘स्वभावो मूर्ध्नितिष्ठते।’ इसीलिए भई, बाह्य साधनों के विवादों का पचड़ा किसलिए खड़ा किया जाए? तुम उसी में रम जाओ जिसमें तुम्हें आनंद और सुख मिले, वे उसमें रमे जिसमें उन्हें आनंद और सुख मिले। मुझसे पूछा जाए तो ‘तुलसी मगन भए। हरिगुणगान में। हरिगुणगान में।’ कुछ लोग चंदन के ऊँचे पर्यंक पर गुदगुदी मखमली सेज पर लेटने के लिए एड़ी-चोटी एक कर रहे हैं—उन्हें उसमें आनंद आता है। परंतु कुछ लोग अपने पास पलंग होते हुए भी, उसे त्यागकर, साथ-साथ कामी पत्नी को भी त्यागकर बुद्ध सदृश बोधिवृक्ष के नीचे खुले स्थान पर सिर्फ धरती पर सोते हैं—उन्हें वहीं पर गहरी नींद आती है। गाढ़ी निद्रा ही उद्दिष्ट हो तो उसे वहीं सोना उचित है, जहाँ वह चैन की नींद सो सके। भई, इस विवाद की आवश्यकता ही क्या है कि मेरा ही साधन तुम्हें भी इस्तेमाल करना होगा! कुछ हाथी पर तो कुछ घोड़े पर और कुछ पालकी में शान से इतरा रहे हैं। भई, उन्हें उसी में आनंद आ रहा है—उनका वही स्वभाव है। लेकिन इस साधु को देखो, उसे हाथी पर सवार होना उतना ही दुःखद प्रतीत हो रहा है जितना सूली पर चढ़ना। इस मुँहजोरी से कि पालकी में स्वयं बैठें और उसे कोई अन्य ढोए—उसे इतना लज्जाप्रद प्रतीत होता है, पालकी के स्पर्श मात्र से उसे ऐसा दुःख होता है जैसे किसी धधकते अंगारे से हाथ जल रहा हो। इसीलिए वह साधु पैदल चलता है और पैदल चलते-चलते भी इस भय से कि कीड़े-मकोड़े या चींटियाँ उसके पैरों तले कुचलकर मर तो नहीं जाएँगी, दयाभाव से उन्हें बचाने के लिए देख-देखकर डग भरता है, उसी में उसे सच्चा सुख मिलता है। कोई चढ़े हाथी घोड़ा पालकी सजा के। साधु चले पैंया-पैंया चिंटियाँ बचा के॥ पैंया पैंया। चिंटियाँ बचा के॥ उस समय सभी को यही अहसास हुआ कि क्या यह वही साधु तो नहीं जिसका तुलसीदासजी के पद में उल्लेख किया गया है। क्योंकि योगानंद की एक खास आदत थी कि राह में, घाट में, हाट में कहीं पर भी हों, देख-देखकर एक-एक कदम तनिक ऊपर उठाकर उसे आगे बढ़ाते थे। यद्यपि वे इसी उद्देश्य से उन भजनों को इतनी तल्लीनता से तथा रसभीने स्वर में नहीं गा रहे थे कि उनका साधुत्व गोस्वामीजी के पद के इन चरणों द्वारा लोगों के मन पर अंकित हो, तथापि उसका परिणाम वही हुआ। हर कोई किसी के बिना बताए भी यह जान गया कि गोस्वामीजी के निकष पर योगानंदजी का साधुत्व कुंदन हो गया है। इस प्रकार के भजनोत्सव में आधी रात बीत चुकी। आरती के समय स्वामीजी का चरण स्पर्श करने के लिए लोगों की रेलपेल होने लगी। लोगों के झुंड घर वापस लौटने के लिए बाहर निकलने लगे। अब तो ऐसी ठेला-ठेली शुरू हो गई कि बस अंधेर मच गया। इतने में अन्नपूर्णा देवी, रमा देवी तथा मालती जहाँ से बाहर निकल रही थीं, उधर दस-पाँच लोगों में अचानक तू-तू, मैं-मैं होने लगी; गुत्थमगुत्था शुरू हो गई और बड़ा हंगामा खड़ा हो गया। यह बखेड़ा निपटाने के बहाने स्वामीजी के दस-पाँच शिष्य छडि़यों के साथ अंदर घुस गए। जो जिधर निकल गया वह वहीं ठेलता, ढकेलता चला गया। बीच में ठसाठस भीड़ ठुँसती गई। इस बिछोह में रमा देवी किधर गईं, अन्नपूर्णा देवी किधर और मालती कहाँ गायब हो गई, इस बात का एक-दूसरी को भी पता नहीं लग रहा था। इतने में स्वामीजी के एक शिष्य ने रमा देवी का, जो लगभग कुचली जाने से बौखलाई हुई थीं, हाथ पकड़कर उन्हें इस भीड़-भड़क्के से बाहर निकाला और बताया कि ‘स्वामीजी की आज्ञा से महिलाओं को विशेष तत्परतापूर्वक पहुँचाने के लिए हमें भेजा गया है। आप अपने घर चलिए।’ ‘‘लेकिन मेरी मालती! बताइए कहाँ है मेरी बिटिया?’’ बौखलाई सी, घबराई सी रमा देवी ने पूछा। उस शिष्य ने आनन-फानन उन्हें आगे-आगे ले जाकर ही बताया कि ‘सब लोगों को अपने-अपने घर पहुँचाया गया है। आप लोग आगे-आगे बढि़ए। बस।’ आधी राह तो भीड़ की ठेला-ठेली ही चल रही थी, उस भीड़ से शिष्य ने रमा देवी को लगभग खींचकर ही निकाला। ‘‘जाइए, अब सीधे घर चली जाइए। बाकी दोनों माताजी लोगों को पहले ही वहाँ पहुँचा दिया गया है।’’ इस प्रकार आश्वासन देते हुए वह शिष्य भीड़ की शिकार किसी अन्य अबला को बचाकर घर पहुँचाने के लिए चलता बना और भीड़ में खो गया। धड़कते दिल से रमा देवी जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाती अपने घर पहुँचीं। एक तरफ इस उपकार का स्मरण करते हुए कि स्वामीजी ने इतने दंगल में विशेष ध्यान रखकर महिलाओं को अपने-अपने घर पहुँचाया और दूसरी तरफ इस बात की चिंता करते-करते कि मालती द्वार पर ही मेरी प्रतीक्षा में बैठी होगी और बेचारी के होश उड़ गए होंगे, रमा देवी अपने घर के पास आ गईं। उन्होंने अँधेरे में उस बरामदे की ओर देखा। दरवाजे का ताला ज्यों-का-त्यों था। मालती या अन्य किसी की भी आहट नहीं मिल रही थी। मालती के आगे आने का कोई सुराग नहीं मिल रहा था। उन्हें ऐसा आभास होने लगा कि भजन-कीर्तन के समय जो धक्कम-धक्का हुआ था, उसमें कुचली गई मालती फूट-फूटकर रो रही है। ‘‘मालती, अरी ओ माला बिटिया...!’’ रमा देवी ने बड़ी कठिनाई के साथ न जाने किसलिए उस वीरान अँधेरे में दो बार पुकारा और तीसरी पुकार यों ही गले से निकल रही थी कि उनका गला भर आया, रुलाई फूट पड़ी और वे धम् से नीचे बैठ गईं। यह ध्यान होते हुए भी कि इधर ऐसा कोई नहीं है, जिससे वे बार-बार पूछ रही हैं, सिसक-सिसककर पूछती ही रहीं, ‘‘मेरी मालती कहाँ है जी? मेरी माला बिटिया आ गई!’’ वस्तुतः उस समय चित्त के इतना व्याकुल होने का कोई कारण नहीं था। स्वामीजी के शिष्य ने जल्दी-जल्दी, किंतु साफ-साफ बता दिया था कि ‘उन सभी को आगे पहुँचा दिया जा चुका है।’ उन्होंने सोचा, इधर नहीं तो हो सकता है अन्नपूर्णा देवी के घर उन दोनों को पहुँचा दिया गया हो। मैं भीड़ में अकेली फँस गई और वे दोनों साथ-साथ हो सकती हैं। नहीं, नहीं, अवश्य साथ ही होंगी। इसलिए इतने दूर तक हंगामे में मुझे ढूँढ़ते-ढूँढ़ते आने की बजाय वहीं से उन्हें अन्नपूर्णा देवी के घर पहुँचा दिया होगा जो इस घर से अधिक निकट है; अन्नपूर्णा देवी ने ही यह प्रार्थना की होगी। इस तरह यही विपरीत विचार धीरे-धीरे उन्हें सही लगने लगा। यह सोचकर कि स्वयं उधर जाकर मालती को देख लें, वे दो-चार बार सड़क पर आ गईं। ‘पर मैं उधर चली गई और मालती इधर आ गई तो! फिर वह अकेली रहेगी। मेरे यहाँ न मिलने पर शायद मुझे ढूँढ़ने वह वापस लौटेगी। दूर का रास्ता, रात का तीसरा पहर, घना अँधेरा। जाएँ या न जाएँ।’ इस तरह उलट-पुलट विवंचना, मिथ्या आशा दिखा रही थी कि न जाने कब उन्हें झपकी-सी आ गई। चौंककर वे उठ गईं। देखा तो बगल में मालती का बिस्तर खाली ही था, यह बिस्तर कभी भी इस तरह सूना-सूना नहीं दिखाई दिया था। प्रतिदिन सुबह आँख खुलते ही उस बिस्तर पर मीठी नींद में सोई हुई मालती की अस्त-व्यस्त लटें सँवारकर उसका मुख प्यार से सहलाकर, उसे कंबल ओढ़ाकर वे प्रसन्न चित्त के साथ ‘सडा सम्मार्जन’3, झाड़ू-बुहार आदि नित्यकर्मों में जुटतीं—यही रमा देवी का नित्य का निश्चित क्रम था। आज उस बिस्तर पर वह प्यारा-सा दुलारा मुखड़ा नहीं दिख रहा था। उनका कलेजा सन्न हो गया—काटो तो बदन में खून नहीं। बुरे विचार मन में उमड़-उमड़कर बाहर आने लगे। परंतु उनका मन में भी उच्चारण न करती हुई रमा देवी तपाक् से उठ खड़ी हुईं और सीधी मालती को ढूँढ़ते अन्नपूर्णा देवी के यहाँ चल पड़ीं। लेकिन थोड़ी दूर चलने पर उन्हें दिखाई दिया कि अन्नपूर्णा देवी इधर ही आ रही हैं। अकेली...। घबराती हुई रमा देवी ने पूछा, ‘‘यह क्या? मालती कहाँ है?’’ हक्की-बक्की सी अन्नपूर्णा देवी ने कहा, ‘‘आँ, स्वामीजी के एक शिष्य ने मुझे बताया कि मालती तो आपके साथ चली गई!’’ ‘‘हाय राम! मेरी मालो! किधर गई होगी वह?’’ रुँधे कंठ में अटके हुए ऐसे ही कुछ शब्द कहकर रमा देवी किसी नन्हे बालक के समान बिलख-बिलखकर रोने लगीं। अन्नपूर्णा देवी उनसे अधिक धैर्यशाली महिला थीं अथवा उनका धीरज इसलिए ज्यों-का-त्यों रहा होगा कि उनकी इकलौती कोखजायी सयानी बेटी नहीं खो गई थी। रमा देवी को सहारा देते हुए उन्होंने कहा, ‘‘इस तरह मन छोटा क्यों करती हैं आप? हिम्मत से काम लीजिए। आप और हमारी जैसी सभी स्त्रियों को जिस तरह स्वामीजी ने सोच-समझकर आदमी भेजकर उस हुल्लड़ से बचाया, उसी तरह मालती को भी बचाकर किसी सुरक्षित स्थान पर रखा होगा। चलिए, पहले स्वामीजी के पास चलते हैं। कुछ भी हो—मालती उधर ही सुरक्षित है—चलिए।’’ रमा देवी को इस तरह ढाढ़स बँधाकर अन्नपूर्णा देवी स्वामीजी के मंदिर की ओर चल तो पड़ीं, परंतु उनका मन भी इसी धुकधुकी में डाँवाडोल हो रहा था कि क्या होगा, क्या नहीं। 

No comments:

Post a Comment