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Tuesday 3 July 2018

BHARAT VHIBAJAN SARDAR PATEL

                भारत विभाजन
-सरदार पटेल
              Foreword
सरदार पटेल कांग्रेस के एक प्रमुख सदस्य थे और पूर्ण स्वराज्य प्राप्त करने के उद्देश्य से स्वतंत्रता आंदोलन में उन्होंने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उनके संपूर्ण राजनीतिक जीवन में भारत की महानता और एकता ही उनका मार्गदर्शक सितारा रहा। सरदार पटेल दो समुदायों के बीच आंतरिक मतभेद उत्पन्न करने के लिए अलग-अलग चुनाव क्षेत्रों और सांप्रदायिक भेदभाववाले पुरस्कारों को स्वीकृत करके ‘बाँटो और राज करो’ की ब्रिटिश नीति के आलोचक थे। भारत की स्वतंत्रता को अस्वीकार करने के लिए हिंदू-मुसलिम मतभेद अंग्रेजों के लिए सरल बहाना था। लिनलिथगो-एमरे-चर्चिल समझौते ने इस मिथ्या तर्क को खूब भुनाया, जिससे हिंदू-मुसलिम एकता बनाए रखने के सरदार पटेल के प्रयासों के बावजूद पाकिस्तान को एक मूर्त स्वरूप प्रदान करने के जिन्ना के सपनों को सहायता मिली। सरदार पटेल का एक मापदंड यह जाँचना होता था कि क्या ब्रिटिश सरकार की कोई विशेष नीति देश के हित में है? उन्होंने महसूस किया कि जितनी जल्दी अंग्रेज भारत छोड़ दें, उतना ही यह देश के लिए अच्छा होगा। पाकिस्तान के लिए मुसलिम लीग की निरंतर माँग के संबंध में सरदार पटेल ने हिंदुओं और मुसलमानों दोनों से ही यह आग्रह किया था कि अपने मिश्रित प्रयासों से पहले स्वतंत्रता प्राप्त कर ली जाए; और फिर अंग्रेजों के चले जाने के बाद भारत के भाग्य का निर्णय किया जाए; क्योंकि ‘गुलामों के पास न तो पाकिस्तान है, न ही हिंदुस्तान।’ भारत की एकता को बनाए रखना ही उनकी प्रमुख चिंता थी और इस उद्देश्य से ही अनेक अवांछित शर्तों के बावजूद उन्होंने ‘कैबिनेट मिशन योजना’ को स्वीकार किया था; क्योंकि इसमें भारत की एकता पर बल देते हुए और एक अलग पाकिस्तान राज्य के लिए मुसलिम लीग की माँग को स्पष्ट रूप से अस्वीकर करते हुए यह कहा गया था कि ‘भारत राज्यों का एक संघ होना चाहिए।’ सरदार पटेल इस बात से प्रफुल्लित थे कि पाकिस्तान के विचार को ‘हमेशा के लिए दफना दिया गया’, जैसाकि उन्होंने अपने मित्रों को लिखा था। किंतु कांग्रेस अध्यक्ष के द्वारा अल्पसंख्यकों के मामले को एक ऐसी घरेलू समस्या के रूप में निरूपित किए जाने पर, जिसमें अंग्रेजों की मंजूरी या हस्तक्षेप की कोई आवश्यकता नहीं है, जिन्ना अत्यंत क्रुद्ध थे। मुसलिम लीग ने तब ‘असंवैधानिक तरीकों’ को अपनाया एवं जिन्ना ने मुसलमानों से 16 अगस्त को ‘सीधी काररवाई दिवस’ मनाने को कहा। इस निर्णय का अत्यंत दुःखद परिणाम यह हुआ कि बंगाल में दंगे और खून-खराबे का सिलसिला चला पड़ा तथा उत्तर प्रदेश और बिहार में भी इससे गंभीर प्रतिहिंसा हुई। असम, पंजाब, बंगाल, उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत में व्यापक अव्यवस्थाएँ फैलीं एवं दंगे हुए और बड़ी संख्या में लोगों की हत्याएँ हुईं। जब कांग्रेस ने अंग्रेजों से जल्दी जाने को कहा, तब उन्होंने कहा कि वे चले जाएँगे, यदि हम ‘आपस में सहमत हों’। गांधीजी ने 20 जुलाई, 1947 को ‘हरिजन’ में लिखा—‘‘एक समुदाय को दूसरे के विरुद्ध उकसाते रहने की नीति का अनुसरण करते हुए ब्रिटेन दो संगठित सेनाओं के बीच भारत को एक युद्ध-स्थल के रूप में छोड़ रहा है।’’ माउंटबेटन ने, जिन्होंने लॉर्ड वावेल से वाइसराय का पदभार ग्रहण किया था, 3॒जून, 1947 को अपनी योजना घोषित की। इसमें बँटवारे के सिद्धांत को स्वीकृति दी गई थी। इस योजना को कांग्रेस और मुसलिम लीग ने स्वीकार किया। सरदार पटेल ने कहा कि उन्होंने विभाजन के लिए सहमति इसलिए दी, क्योंकि वह विश्वसनीय रूप से समझते थे कि ‘‘(शेष) भारत को संयुक्त रखने के लिए इसे अब विभाजित कर दिया जाना चाहिए।’’ बँटवारे का समर्थन करते हुए पं. नेहरू ने टिप्पणी की थी कि ‘‘निर्दोष नागरिकों की हत्या से विभाजन बेहतर है।’’ पं. नेहरू और सरदार पटेल दोनों ने ही कांग्रेस कमेटी से कठोरतापूर्वक कह दिया था कि ‘‘या तो विभाजन स्वीकार करना होगा अथवा पूर्ण रुकावट और अराजकता का सामना करना पड़ेगा।’’ एक दूसरे अवसर पर सरदार पटेल ने कहा था कि ‘‘हमें विभाजन के लिए सहमत होना पड़ा...तमाम संशयों और दुःखों के बाद। किंतु मैंने महसूस किया कि यदि मैं विभाजन को स्वीकार नहीं करता हूँ तो भारत अनेक समुदायों में बँट जाएगा और पूर्णतः बरबाद हो जाएगा। विभाजन के बाद भी 75 प्रतिशत जनसंख्या इस ओर रह जाएगी, जिन्हें हमें ऊपर उठाना है।’’ यहाँ तक कि गांधीजी ने भी, जिनसे अनेक वर्षों तक सरदार पूर्णतः सहमत थे, महसूस किया कि यद्यपि वे इस निर्णय से सहमत नहीं हैं, ‘‘किंतु उन्होंने मुझसे (सरदार से) कहा कि यदि मेरा हृदय मेरी धारणा को ठीक समझता है तो मैं आगे बढ़ सकता हूँ।’’ यह पुस्तक ऐसे विषयों की पुस्तकों की शृंखला में छठी पुस्तक है। पहली पाँच पुस्तकें हैं—कश्मीर और हैदराबाद; मुसलमान और शरणार्थी; नेहरू, गांधी और सुभाष; आर्थिक एवं विदेश नीति तथा सरदार पटेल एवं प्रशासनिक सेवा। मैंने पाठकों की सुविधा के लिए एक विस्तृत भूमिका प्रस्तुत करने की चेष्टा की है, जो उन दस्तावेजों पर आधारित है, जो पंद्रह खंडों में डॉ. पी.एन. चोपड़ा एवं मेरे द्वारा संपादित ‘कलेक्टेड वर्क्स ऑफ सरदार पटेल’, दुर्गादास द्वारा संपादित ‘वॉल्यूम्स ऑफ सरदार पटेल्स कॉरस्पोंडेंस’ और दो खंडों में वी. शंकर द्वारा संपादित ‘सिलेक्टेड कॉरस्पोंडेंस ऑफ सरदार पटेल’ में दिए गए हैं। उपर्युक्त स्रोतों से संबंधित दस्तावेजों को ध्यानपूर्वक चुनकर भूमिका के साथ संलग्न किया गया है। —प्रभा चोपड़ा
                         Role
दिसंबर 1929 के लाहौर कांग्रेस अधिवेशन में एक ऐतिहासिक प्रस्ताव पारित किए जाने के साथ ही, जिसमें पूर्ण स्वराज्य या ‘कंपलीट इंडिपेंडेंस’ ही अंतिम लक्ष्य घोषित किया गया था, भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में एक नया अध्याय शुरू हुआ। इस लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए कांग्रेस कार्यकारिणी समिति ने फरवरी 1930 की अपनी बैठक में महात्मा गांधी को ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन’ प्रारंभ करने की अनुमति प्रदान की। सरदार वल्लभभाई पटेल कांग्रेस कार्यकारिणी समिति के एक प्रमुख सदस्य थे। गांधीजी ने कानून तोड़ते हुए दांडी समुद्र-तट पर नमक बनाकर 6 अप्रैल, 1930 को इस आंदोलन को प्रारंभ करने का निर्णय लिया। वाइसराय की तरफ से एक गोपनीय टेलीग्राम में बंबई की सरकार ने 17 जनवरी, 1930 को सूचित किया कि एक ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन’ या टैक्स न देने संबंधी अभियान गुजरात के किसी भाग में कभी भी प्रारंभ किया जा सकता है (प्रलेख-1)। सरदार पटेल को, जो कि एक जन्मजात आंदोलनकारी एवं स्कूल के दिनों से ही नेता थे और इस आंदोलन के एक प्रमुख व्यक्ति थे, बंबई की सरकार द्वारा 7 मार्च, 1930 को बोरसाद में ‘ग्रामीणों को नमक बनाने के लिए’ उकसाने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया (प्रलेख-2)। उनकी गिरफ्तारी और तीन महीने जेल की सजा ने एक संकेत दे दिया कि युद्ध प्रारंभ हो चुका है। जैसाकि नेहरू ने टिप्पणी की कि ‘‘इसका अर्थ यह है कि हम लड़ाई के बीचोबीच हैं।’’ (प्रलेख-3) सरदार पटेल को गुप्त रूप से एक विशेष ट्रेन द्वारा साबरमती से यरवदा जेल भेज दिया गया। जेल में रहते हुए उन्हें सुबह ‘ज्वार का दलिया’ और एक दिन के अंतराल पर ज्वार की रोटी और दाल या रोटी एवं सब्जी दी जाती थी। सरदार पटेल दाँत दर्द से पीडि़त थे और जब उनसे पूछा गया कि उन्होंने ज्वार की रोटी को किस प्रकार चबाया, तब उन्होंने हँसते हुए कहा, ‘‘ओह, मैंने उसे पानी में भिगोकर तोड़ दिया और बड़ी आसानी से खा गया।’’ कुछ देर मौन रहने के बाद उन्होंने फिर कहा, ‘‘एक चीज जो मुझे चिंतित करती है वह यह है कि जेल में सभी जिम्मेदार अधिकारी भारतीय हैं। हम भारतीयों के माध्यम से ही वे ऐसी अमानवीय व्यवस्था चलाते हैं। मेरी कामना है कि सभी विदेशी होते, ताकि मैं उनसे लड़ सकता। लेकिन मैं अपने ही सगे-संबंधियों से कैसे लड़ सकता हूँ?’’ (प्रलेख-4) सरदार पटेल ने स्पष्ट किया कि ब्रिटिश इंडिया में कांग्रेस जिस स्वतंत्रता आंदोलन को चला रही थी, वह सामंतों की रियासतों सहित 33 करोड़ लोगों की मुक्ति के लिए था। (प्रलेख-5) उन्होंने संपूर्ण भारत के लिए सैन्य बलों एवं आर्थिक नियंत्रण सहित अपने लोगों के प्रति जिम्मेदार एक पूर्ण राष्ट्रीय सरकार की माँग की। जवाहरलाल नेहरू ने अक्तूबर 1930 में अपनी संभावित गिरफ्तारी का खयाल करते हुए सरदार पटेल को कार्यकारी अध्यक्ष नामांकित किया। सरदार पटेल ने कार्यभार ग्रहण करने के बाद देश का एक तूफानी दौरा किया और कांग्रेस के संदेश को लोगों तक पहुँचाया तथा इस बात पर जोर दिया कि विदेशी कपड़ों का बहिष्कार किया जाए। उन्होंने अपने श्रोताओं को यह भी बताया कि जनता परिषद् में सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व और सीटें नहीं चाहती। उनकी समस्या भूख और रोटी है। (प्रलेख-6) हिंदू-मुसलिम एकता पर जोर देते हुए उन्होंने इस विचार का खंडन किया कि मुसलिम इस राष्ट्रीय आंदोलन में भाग नहीं ले रहे हैं। (प्रलेख-7) किंतु सरदार पटेल बंगाल की स्थिति से परेशान थे, विशेष रूप से अंग्रेजों द्वारा मुसलमानों को उकसाए जाने के कारण । (प्रलेख-8) सरदार पटेल की अध्यक्षता में 2 अप्रैल, 1931 को कराची में इंडियन नेशनल कांग्रेस की कार्यकारिणी समिति के द्वारा विभिन्न स्तरों पर विचार किए जाने के बाद तिरंगा राष्ट्रीय ध्वज स्वीकार किया गया। कमेटी का यह दृष्टिकोण सर्वसम्मत था कि ध्वजा के रंगों का कोई सांप्रदायिक महत्त्व नहीं होना चाहिए। किंतु अनेक सदस्यों ने यह महसूस किया कि झंडे का लाल व हरा रंग हिंदू और मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करता है और बाद में सफेद रंग जोड़ा गया, जो भारत के अन्य समुदायों के लिए था। यह वही ध्वज था जिसके नीचे सन् 1930-31 में महान् भारतीय अहिंसा आंदोलन प्रारंभ किया गया। बाद में इसे असांप्रदायिक महत्त्व देने के लिए नीले रंग के चरखों के साथ लाल रंग को केसरिया रंग में बदल दिया गया। केसरिया रंग साहस और त्याग का, सफेद शांति और सत्य का, हरा रंग विश्वास और शौर्य का एवं चरखा जनता की आशा का प्रतीक है। (प्रलेख-9) यद्यपि सरदार पटेल परिषद् (काउंसिल) में प्रवेश के विरुद्ध थे, फिर भी उन्होंने सन् 1934 में महासभा (असेंबली) का चुनाव लड़ने के कांग्रेस के निर्णय का समर्थन किया। कांग्रेस पार्टी के एक अनुशासित सिपाही के रूप में उन्होंने चुनाव लड़ने के आलाकमान के फैसले को स्वीकार किया और कहा कि ‘‘वह कांग्रेस के द्वारा स्वीकार किए गए किसी भी कार्यक्रम में सहयोग करेंगे, क्योंकि मनोवैज्ञानिक दृष्टि से उपयुक्त वर्तमान समय में कार्यकर्ताओं के बीच मतभेद उत्पन्न कर वह कांग्रेस की प्रतिष्ठा को संकटापन्न करने के विरुद्ध हैं...। सरदार पटेल उत्सुक थे कि कांग्रेस कार्यकर्ताओं में हर कीमत पर एकता बनी रहे और प्रत्येक कार्यकर्ता कांग्रेस के कार्यक्रमों का निर्विवाद रूप से पालन करता रहे।’’ उन्होंने प्रांतों का, विशेषकर बंबई और गुजरात का, तूफानी दौरा किया और लोगों से आग्रह किया कि वे कांग्रेस प्रत्याशी को वोट दें और कांग्रेस संसदीय बोर्ड के महामंत्री भूलाभाई जे. देसाई से कहा कि वे बंबई के लोगों तक उनका संदेश पहुँचाएँ। (प्रलेख-10, 11 और 12) सरदार पटेल ने रास (Ras) के लोगों को आनेवाले प्रांतीय महासभा (प्रोविंशियल असेंबली) चुनावों के महत्त्व को समझाने का प्रयास किया और उन्हें कांग्रेस प्रत्याशी को वोट देने के लिए प्रेरित किया, ‘‘लड़ाई अभी समाप्त नहीं हुई है, लेकिन इसका तरीका बदल दिया गया है। स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कभी खत्म नहीं होता।’’ इस अवधि में उनके सभी भाषणों में उनका स्वर सत्ता के साथ सामंजस्य स्थापित करने का था, न कि विरोध करने का। किंतु उन्होंने लोगों को सलाह दी कि कांग्रेस की नीतियों में बदलाव के कारण कोई भी नियम-विरुद्ध कार्य न करें। परंतु इसके साथ ही उन्होंने लोगों को यह भी स्पष्ट कर दिया कि देश की मुक्ति के लिए विदेशी सरकार के साथ लंबे समय तक चलनेवाले संघर्ष में यह सिर्फ एक अगला कदम है और लोगों को स्वतंत्रता-प्राप्ति के लिए और अधिक बलिदान करने को तैयार रहना चाहिए। (प्रलेख-13 और 14) उन्होंने तर्क दिया कि यद्यपि उन लोगों ने ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन’ स्थगित किया है, किंतु ‘‘लोगों और सरकार के बीच की लड़ाई अभी भी समाप्त नहीं हुई है।’’ (प्रलेख-15) वह हिंदू-मुसलिम एकता के प्रति अडिग रहे और उन्होंने समुदायों में आंतरिक मतभेद उत्पन्न करने के उद्देश्य से सांप्रदायिक पुरस्कारों की स्थापना करने के लिए ब्रिटिश सरकार की आलोचना की। उन्होंने हिंदुओं और मुसलमानों दोनों को ही नसीहत दी कि वे आपस में झगड़ा न करें। उनका विश्वास था कि ‘‘मसजिदों और गुरुद्वारों के विषय पर लड़ना अत्यंत अधार्मिक है और ऐसे सांप्रदायिक झगड़े ही देश की पराधीनता के लिए जिम्मेदार हैं।’’ (प्रलेख-16) उन्होंने घोषित किया कि ‘‘वास्तव में ईश्वर मसजिदों और मंदिरों तक ही सीमित नहीं है। वह सर्वत्र परिव्याप्त है। उसे देखने का सबसे अच्छा तरीका अपने अंदर देखना है।’’ (प्रलेख-17) ब्रिटिश सरकार सरदार पटेल के क्रियाकलापों के बारे में बहुत चिंतित थी और उन पर नजर रख रही थी। इस संबंध में डी.आई.जी. पुलिस, बंबई ने अपने गोपनीय पत्र दिनांक 22 मार्च, 1935 के द्वारा विशेष सचिव (गृह), बंबई को सूचित किया कि वल्लभभाई की यात्रा स्थिति का जायजा लेने तथा यह आँकने के लिए की गई थी कि सरकार-विरोधी उस आंदोलन में कांग्रेस की नीति क्या होनी चाहिए, जिसकी तैयारी वर्धामें उस समय की जा रही थी। (प्रलेख-18) सरदार ने लोगों से कांग्रेस को वोट देने का आग्रह किया, जिसका ‘‘लक्ष्य स्वतंत्रता या ‘पूर्ण स्वराज्य’ प्राप्त करना है। किंतु कांग्रेस का उद्देश्य तभी पूरा हो सकता है, जब इस आंदोलन में कांग्रेस को देश का सर्वाधिक समर्थन प्राप्त हो...। जिन लोगों को वोट देने का अधिकार दिया गया है उन्हें इस अधिकार को देश की पवित्र धरोहर समझना चाहिए।’’ ‘‘कांग्रेस को वोट देना स्वतंत्रता को चुनना है; कांग्रेस के विरुद्ध वोट देना गुलामी को अपनाना है।’’ (प्रलेख-19 और 20) सरदार पटेल सरकार द्वारा हरिजनों और मुसलमानों के लिए अलग चुनाव क्षेत्रों की व्यवस्था की नीति के आलोचक थे। इस संबंध में उन्होंने कहा, ‘‘सरकार भारत को दो अलग भागों में बाँटना चाहती है। सरकार ‘बाँटो और राज करो’ की नीति अपनाकर कांग्रेस को पराजित करना चाहती है।’’ (प्रलेख-21) वह कांग्रेस मंत्रालयों के काम-काज से पूर्णतः संतुष्ट थे और हरिपुर सम्मेलन के दौरान अपने भाषण में उन्होंने विशेष रूप से जोर देकर कहा, ‘‘कांग्रेस के कार्यभार ग्रहण करने के पूर्व सांप्रदायिक क्लेश अधिक था, किंतु कांग्रेस के कार्यभार ग्रहण करने के बाद से सांप्रदायिक बलवे का एक भी गंभीर मामला नहीं हुआ है और इससे कांग्रेस के शासन करने की क्षमता की विस्तृत अभिव्यक्ति होती है।’’ (प्रलेख-22) सरदार पटेल ने दृढ़तापूर्वक जिन्ना के इस आरोप का खंडन किया कि कांग्रेस शासन में मुसलमानों का दमन किया जा रहा है। 11 दिसंबर, 1939 को ‘हिंदू’ में प्रकाशित अपने एक वक्तव्य में उन्होंने इन आरोपों को ‘‘अविचारित, अदूरदर्शी और सांप्रदायिक शांति को खतरे में डालनेवाला’’ बताया। वह यह देखकर दुःखी थे कि स्थिति को अच्छी तरह समझते हुए भी वाइसराय और गवर्नर्स ने इन आरोपों का समुचित जवाब देने से इनकार किया। यद्यपि वे भी इससे उतने ही संबंधित थे जितना कि मंत्री; और इसका कारण केवल वे ही जानते थे। स्वयं जिन्ना ने भी एक स्वतंत्र न्यायाधिकरण के समक्ष अपने आरोपों को जाँच के लिए प्रस्तुत करने के कांग्रेस अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद के प्रस्ताव की अवहेलना की। (प्रलेख-23, 24 और 25) 16 अक्तूबर, 1939 को राजेंद्र बाबू को लिखे अपने पत्र में सरदार पटेल ने जिन्ना का तुष्टीकरण किए जाने की आलोचना की। उन्होंने लिखा—‘‘मेरे विचार से, हम लोगों के द्वारा अब कोई और पहल नहीं की जानी चाहिए...। आपके पत्र के जवाब में श्री जिन्ना के पिछले उत्तर से अब आगे किसी पहल की पूरी जिम्मेदारी उन्हीं पर पड़ती है। मैं समझता हूँ कि लगातार प्रस्ताव देकर हम लोग अपना केस खराब कर रहे हैं।...मेरा दृढ़ विश्वास है कि सांप्रदायिकता के प्रश्न का कोई समाधान तब तक नहीं हो सकता जब तक कि श्री जिन्ना यह महसूस न कर लें कि वह कांग्रेस पर दबाव नहीं डाल सकते।’’ (प्रलेख-26) कांग्रेस मंत्रालयों के विरुद्ध जिन्ना के आधारहीन आरोपों पर वाइसराय एवं राज्यपालों की चुप्पी पर अपनी भावनाओं के उद्वेग में सरदार पटेल ने टिप्पणी की—‘‘कांग्रेस कार्यकारिणी समिति की बैठक की संध्या में जिन्ना के साथ किसी विवाद में पड़ने की मेरी कोई इच्छा नहीं है, विशेष रूप से जब उन्होंने सांप्रदायिकता के प्रश्न पर एक असंभव तर्क प्रस्तुत करना उचित समझा है। लेकिन मैं देश के प्रति अपना यह कर्तव्य समझता हूँ कि जनता का ध्यान जिन्ना के हालिया बयान के अभिप्रेत अर्थों की ओर आकर्षित करूँ। ‘‘जिन्ना के वक्तव्य से यह स्पष्ट है कि वह कोई सांप्रदायिक समझौता नहीं चाहते हैं।... उनका एकमात्र उद्देश्य सांप्रदायिकता की भावना को अत्यधिक तनाव की स्थिति में बनाए रखना ही प्रतीत होता है। उनकी तथाकथित मुक्ति के दिन को मनाए जाने की जिद स्पष्टतः व्याप्त विद्वेष को उत्तेजित करना है, जिससे अनेक लोग यह समझते हैं कि दो समुदायों में लड़ाई-झगड़ा प्रारंभ हो सकता है।’’ (प्रलेख-24) जवाहरलाल नेहरू को 9 दिसंबर, 1939 को लिखे अपने पत्र में उन्होंने जिन्ना के वक्तव्य को मुसलमानों को मात्र भड़कानेवाला एक वक्तव्य बतलाया। उन्होंने कहा, ‘‘संपूर्ण भारत में हमारे लोग यह सुनकर क्रोधित होंगे कि आप उनके इस भड़काऊ वक्तव्य के बाद भी उनसे मिल रहे हैं। हम लोगों को इस स्थिति को जल्द-से-जल्द समाप्त कर देना चाहिए।’’ मैं देखता हूँ कि सर स्टैफोर्ड क्रिप्स भी सर्वश्री जिन्ना एवं अंबेडकर और राजकुमारों के कुछ प्रतिनिधियों से मिल रहे हैं। मैं आशा करता हूँ कि उनकी मुलाकातों से राजनीतिक समुद्र के नीचे दबे पंकिल जल की गंदगी में पुनः हलचल नहीं होगी।’’ (प्रलेख-27)1 बाद में भावनगर प्रजामंडल कांग्रेस में पहुँचने पर जब सरदार पटेल को एक जुलूस में ले जाया गया तो एक मसजिद के निकट उस जुलूस पर मुसलमानों द्वारा आक्रमण किया गया। इस संघर्ष में दो व्यक्ति मारे गए और एक गंभीर रूप से घायल हुआ। किंतु सरदार शांत रहे और लोगों से अपील की कि वे इस स्थिति से उत्तेजित न हों तथा पूर्ण अहिंसा का पालन करें। (प्रलेख-28) यद्यपि सरदार पटेल यह चाहते थे कि विभिन्न समुदायों में निश्चित रूप से एकता होनी चाहिए, किंतु फिर भी उन्होंने यह जरूरी समझा और कहा कि ‘‘यदि हम वास्तव में एकता चाहते हैं तो उन लोगों का पता लगाया जाना चाहिए, जो इन घृणित कार्यों के पीछे हैं और हमें उन्हें तब तक नहीं छोड़ना चाहिए जब तक वे अपने कृत्यों के लिए पश्चात्ताप न करने लगें। उन्हें यह सोचने का अवसर नहीं दिया जाना चाहिए कि हम मूर्ख और कमजोर हैं।’’ (प्रलेख-29) भावनगर में कुछ मुसलमानों द्वारा उन पर आक्रमण किए जाने के बावजूद सरदार पटेल ने राजेंद्र बाबू से कहा कि उन आर्यसमाजियों पर कठोर काररवाई की जानी चाहिए, जो शोलापुर में दो मुसलमानों की हत्या के जिम्मेदार हैं। (प्रलेख-30) ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीयों के पूर्ण स्वराज्य की महत्त्वाकांक्षा को अंगीकार करने की मनोवृत्ति से यद्यपि कांग्रेस के नेतागण अत्यधिक हताश थे, फिर भी सन् 1939 में प्रारंभ हुए द्वितीय विश्व युद्ध में अंग्रेजों ने बिना उनकी सहमति के ही उन्हें शामिल कर लिया। तात्कालिक वाइसराय लॉर्ड लिनलिथगो ने जर्मनी के विरुद्ध भारत को युद्ध में शामिल घोषित कर दिया और कांग्रेस मंत्रालयों से परामर्श करने की परवाह नहीं की। कांग्रेस के द्वारा इस पर आक्रोश व्यक्त करते हुए स्पष्ट किया गया कि भारत युद्ध में तभी सहयोग कर सकता है जब उसे एक स्वतंत्र देश घोषित किया जाए। सरदार पटेल ने ब्रिटिश सरकार की तीखी आलोचना की, ‘‘यह आश्चर्यजनक है कि संसार की कुल जनसंख्या के पाँचवें हिस्सेवाले एक देश को बिना उसकी सहमति के ही एक भयंकर युद्ध में सम्मिलित कर दिया गया है।’’ उन्होंने कहा, ‘‘कांग्रेस 35 करोड़ लोगों के लिए स्वतंत्रता चाहती है। संपूर्ण भारत के लिए स्वाधीनता।’’ किंतु भारत की सहमति के बिना ही ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत के द्वितीय विश्व युद्ध में शामिल होने की घोषणा पर उन्होंने कहा, ‘‘यह भारत की गरिमा और प्रतिष्ठा के लिए अपमानजनक है। वे कांग्रेस को दबाना चाहते हैं। यह घोषणा संघर्ष के लिए कांग्रेस को एक निमंत्रण है।’’ (प्रलेख-31) हम अंग्रेजों से कहते हैं कि हम आपको पूर्ण सहयोग करने के लिए तैयार हैं। यद्यपि हम अपने अहिंसा के प्रयोग में और आगे नहीं बढ़ सकेंगे, फिर भी हम युद्ध में आपकी तरफ रहेंगे। युवक लोग सैन्य प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए एक अवसर चाहते हैं। कांग्रेस की विधायी (लेजिस्लेटिव) पार्टी ने बारंबार यह प्रस्ताव पास किया है कि सेना का भारतीयकरण किया जाना चाहिए।... ‘‘हम लोग आपके सभी पिछले दुष्कर्मों को भुला देने के लिए तैयार हैं। लेकिन मैं आपसे यह पूछता हूँ कि मरते समय भी क्या आप एक वसीयत लिखना और भविष्य के लिए व्यवस्था करना चाहेंगे? हम सोचते हैं कि जब हमारा देश स्वतंत्र नहीं है तो हम किस प्रकार संसार की स्वतंत्रता के लिए प्रयास कर सकते हैं, जबकि हम स्वयं गुलाम हैं! यदि हम सत्ता के हस्तांतरण के बारे में बिना किसी स्पष्टीकरण के ही उन्हें मदद करते हैं तो हमारी बेडि़याँ और भी कस जाएँगी—हमारा पिछला अनुभव ऐसा ही है। इसलिए हम जो बात कर रहे हैं वह सौदे के बारे में नहीं है, बल्कि एक स्पष्टीकरण के बारे में है।’’ (प्रलेख-32) सरदार पटेल आक्रोशित थे कि ब्रिटिश साम्राज्यवादी मीठी-मीठी बातें करते हैं। बार-बार वार्त्तालाप किए गए। गांधीजी वाइसराय से बार-बार मिले, किंतु उन्हें कुछ भी ऐसा नहीं मिला जो स्वीकार्य हो। ‘‘हम लोगों ने काफी धैर्य रखा, क्योंकि हम लोग दुश्मन को उस समय तंग नहीं करना चाहते थे जब वह कठिनाई में है। किंतु अब हमारा धैर्य समाप्त हो चुका है। ऐसा लगता है कि ब्रिटिश साम्राज्य अपना असली स्वभाव दिखला रहा है। सरकार इस समय जो कर रही है, उससे लगता है कि वह हमें विभाजित करना चाहती है। उन्हें करने दीजिए। किंतु हमारी राष्ट्रीयता, जिसकी जड़ें गहराई तक हैं, प्रभावित नहीं होगी। इस समय वे कांग्रेस को कुचलने के उद्देश्य से विरोधी शक्तियों को एक साथ जोड़ने में व्यस्त हैं।’’ उन्होंने कहा, ‘‘आप हमारे कंधों पर पिछले डेढ़ सौ सालों से सवारी करते चले आ रहे हैं, अब उतर जाइए। वे कहते हैं कि यदि वे चले जाएँ तो हमारा क्या होगा? आप हमसे यह प्रश्न दो सौ वर्षों तक शासन करने के बाद पूछ रहे हैं! फिर आपने इतने वर्षों तक क्या किया? इससे मुझे एक झगड़े का प्रसंग याद आता है—एक मकान मालिक से चौकीदार पूछता है कि ‘क्या होगा, जब वह चला जाएगा?’ ‘मैं सुरक्षा करना सीख लूँगा।’ लेकिन यह चौकीदार काम छोड़ता नहीं है और हम लोगों को बार-बार धमकाता रहता है।’’ (प्रलेख-33) वचनबद्ध न रहने के लिए ब्रिटिश सरकार को फटकार लगाते हुए सरदार पटेल ने कहा, ‘‘कांग्रेस ने कहा है कि यदि आप वास्तव में हमारी मदद करना चाहते हैं तो वाइसराय की परिषद् का गठन बंद कीजिए और इसकी जगह कांग्रेस, मुसलिम लीग, हिंदू महासभा और अन्य सभी पार्टियों के प्रतिनिधियों और कुछ अंग्रेजों को भी साथ लेकर एक राष्ट्रीय सरकार बनाइए और इस सरकार को जनता के प्रति जिम्मेदार रहने दीजिए...लेकिन उनका प्रस्ताव सरकारी नौकरों को शामिल करके वाइसराय की परिषद् को विस्तृत करना है...उनकी आकांक्षा पवित्र नहीं है।’’ (प्रलेख-34) किंतु ‘‘उनकी परीक्षा की घड़ी में हम भारत के प्रति उनकी त्रुटियों को याद नहीं दिलाना चाहते हैं; परंतु हम अपनी माँगों से थोड़ा भी पीछे नहीं हट रहे हैं। हमने यह स्पष्ट कर दिया है कि यदि हमारी माँगें स्वीकार कर ली जाती हैं तो हमारा पूर्ण और हार्दिक सहयोग ग्रेट ब्रिटेन के साथ होगा।’’ सरदार पटेल ने जोर देकर कहा था कि यदि ब्रिटिश सरकार भारत की स्वतंत्रता की माँग को स्वीकार कर लेती है तो ‘‘यह अच्छा होगा, क्योंकि यह उनके लिए लाभकारी होगा और हमारे हित में; किंतु यदि वे नहीं मानते हैं तो हम अपना रास्ता चुनने के लिए स्वतंत्र हैं और हम ऐसा करेंगे।’’ उन्होंने आगे कहा, ‘‘कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो इस कदम से खतरा महसूस कर रहे हैं... किंतु भारत जैसे विशाल देश की स्वतंत्रता के मसले को तब तक नहीं सुलझाया जा सकता है जब तक कि हम एक सीमा तक जोखिम उठाने को तैयार न हो जाएँ, और हम ऐसा करने के लिए तैयार हैं।... हमारा सहयोग, यदि इसे पूर्ण और हार्दिक होना है, तो इसे स्वतंत्र भारत के लोगों से आना चाहिए। फिर हम ब्रिटेन की तब तक मदद नहीं कर सकते जब तक कि हम स्वतंत्र नहीं हैं; क्योंकि इस प्रकार दिए गए सभी सहयोगों से हमारी बेडि़याँ हमें और जकड़ेंगी और हम मूर्ख नहीं हैं कि इसे होने देंगे।’’ (प्रलेख-35) इसी बीच ब्रिटेन के विरुद्ध ‘ऐक्सिस पावर’ (जर्मनी, इटली और जापान की संधि) में एक मित्र-राष्ट्र के रूप में जापान के सम्मिलित हो जाने से जहाँ तक भारत का संबंध है, युद्ध ने एक खतरनाक मोड़ ले लिया था। सन् 1942 में भारत युद्ध के मैदान के बहुत निकट पहुँच गया था। गुजरात में नडियाड के लोगों के सम्मुख बोलते हुए सरदार पटेल ने कहा था, ‘‘युद्ध अब हमारे दरवाजे पर पहुँच गया है।... अब हमें एक जाति और दूसरी जाति, एक धर्म और दूसरे धर्म, एक समुदाय और दूसरे समुदाय आदि के मतभेदों को भूलकर एकजुट हो जाना है और भय का परित्याग करना है।’’ (प्रलेख-36) उन्होंने जोर दिया कि अहिंसा एक सीमित क्षेत्र तक ठीक है, किंतु यह आंतरिक या बाह्य आक्रमण का सामना करने के लिए उचित नहीं है। (प्रलेख-37) जापानी सेना ने सिंगापुर, मलाया, रंगून और मांडले पर बड़ी तेजी से कब्जा कर लिया। सीलोन (श्रीलंका) पर आक्रमण किया गया और भारत पर भी आक्रमण का खतरा था। इस प्रकार सन् 1942 में भारत युद्ध के मैदान के बहुत निकट पहुँच गया था, क्योंकि अप्रैल 1942 में विशाखापट्टनम और काकीनाडा पर हवाई हमले किए गए। जापानी युद्धपोत भी बंगाल की खाड़ी में दिखे थे। 2 सरदार पटेल ने टिप्पणी की कि कांग्रेस एक अद्वितीय संगठन है। करोड़ों लोग इसके पीछे हैं और इसकी आवाज सुनते हैं। ‘‘हम लोगों को उस किसी भी शक्ति से लड़ना है, जो हमारे ऊपर शासन करने की कोशिश करती है। कांग्रेस किसी भी हमलावर से लड़ेगी। हम यह नहीं चाहते कि एक बुराई को दूसरी बुराई से स्थानांतरित किया जाए। हम लुटेरों के बीच चुनाव नहीं कर सकते।’’ (प्रलेख-38) उन्होंने लोगों को राष्ट्रीय शक्तियों से जुड़ने और कांग्रेस की सहायता करने के लिए प्रेरित किया। ‘‘मृत्यु से मत डरिए।... हम लोगों को गांधीजी से एक चीज सीखनी है और वह है निर्भयता।’’ मित्र-राष्ट्र भारत के भाग्य के बारे में बहुत चिंतित थे। संयुक्त राज अमेरिका के राष्ट्रपति रूजवेल्ट और चीन के चिआंग काई-शेक ने ब्रिटिश सरकार पर भारतीय नेताओं के साथ एक समझौता करने के लिए दबाव डाला। तदनुसार ब्रिटिश मंत्रिमंडल के एक सदस्य सर स्टैफोर्ड क्रिप्स को ब्रिटिश प्रधानमंत्री श्री चर्चिल ने भारत जाकर इस गतिरोध का निपटारा करने के लिए प्रतिनियुक्त किया। सर स्टैफोर्ड क्रिप्स मार्च 1942 में कुछ प्रस्तावों के साथ दिल्ली (भारत) आए। उन्होंने वाइसराय, उनकी कार्यकारी परिषद् के सदस्यों, राज्यपालोंऔर फिर प्रमुख पार्टियों के नेताओं से बातचीत की, जिनमें सर्वश्री गांधी, जिन्ना और नेहरू शामिल थे। उनके प्रस्तावों में तीन मुख्य बातें सन्निहित थीं— (1) युद्ध के समाप्त होने के तुरंत बाद एक नया संविधान निर्मित करने के लिए भारत में एक निर्वाचित समिति का गठन किया जाएगा। नए प्रांतीय चुनावों के बाद प्रांतों को जनसंख्या के अनुपात में अपने प्रतिनिधियों को भेजने के लिए आमंत्रित किया जाएगा (उनके निचले सदन से) तथा उनके अधिकार ब्रिटिश भारत के सदस्यों के समान ही होंगे। ब्रिटिश सरकार ने नए संविधान को निम्नलिखित शर्तों के साथ स्वीकार करने और लागू करने का वचन दिया— (2) (अ) जो प्रांत नए संविधान को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं, वे अपनी वर्तमान संवैधानिक स्थिति पर बने रहेंगे। यदि वे बाद में शामिल होने का निर्णय करते हैं तो उसकी व्यवस्था की गई है। शामिल न होनेवाला प्रांत यदि प्रतिनिधियोंवाली समान प्रक्रिया से एक नया संविधान बनाना चाहता है तो ब्रिटिश सरकार उससे सहमत होगी और उसका वही स्थान होगा, जो स्वयं भारतीय संघ का होगा। (ब) ब्रिटिश महामहिम की सरकार और संविधान की रचना करनेवाली समिति के बीच हुए समझौते पर हस्ताक्षर किए जाएँगे। इस संधि में शासन के हस्तांतरण से उत्पन्न होनेवाले सभी आवश्यक विषयों को समाविष्ट किया जाएगा; ब्रिटिश वायदे के मुताबिक इसमें अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए व्यवस्था होगी, लेकिन ब्रिटिश कॉमनवेल्थ से भविष्य के अपने संबंधों के निर्णय के भारतीय संघ के अधिकार को सीमित नहीं किया जाएगा। भारतीय रियासतों से की गई संधियों पर पुनर्विचार किया जाएगा। (3) किंतु क्रिप्स ने यह भी अनुबद्ध किया कि युद्ध के दौरान वाइसराय की परिषद् का पुनर्गठन पार्टी नेताओं की एक अंतरिम सरकार बनाकर किया जाएगा; परंतु प्रतिरक्षा विभाग अंग्रेजों के पास ही रहेगा। इस प्रकार, जैसाकि हडसन ने टिप्पणी की कि दीर्घकालिक नीतियाँ यथार्थतः ब्रिटिश सरकार की ही थीं... प्रांतीयता का विकल्प सांप्रदायिक गतिरोध की कुंजी थी।... एक और तथ्य जिसे दृढ़ता से, किंतु सरकारी सलाहकारों द्वारा निराधार ही प्रस्तुत किया गया, वह यह था कि संधि में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए तब तक व्यवस्था नहीं हो सकती जब तक कि इसमें उनके प्रतिनिधिस्वरूप ब्रिटिश हस्तक्षेप की आवश्यक व्यवस्था न कर ली जाए। कांग्रेस और मुसलिम लीग दोनों ने ही इन प्रस्तावों को अस्वीकृत कर दिया। कांग्रेस ने महसूस किया कि क्रिप्स मिशन के प्रस्तावों से ‘‘कांग्रेस और सरकार के बीच की दूरियाँ बढ़ेंगी और जिसे वे मानते थे कि शासन त्यागने की अपनी असम्मति को अंततः उन्होंने अभिव्यक्त किया था।’’ कांग्रेस ने यथार्थतः भारतीय हाथों में तत्काल शासन हस्तांतरित करने के लिए आग्रह किया। यानी पूर्ण शक्ति-संपन्न एक मंत्रिमंडलीय सरकार और (क्रिप्स के) प्रस्तावों को अस्वीकृत कर दिया।3 यद्यपि कांग्रेस का यह विचार था कि वह किसी भी रियासत को अपनी इच्छा के विरुद्ध भारतीय संघ में रहने के लिए बाध्य नहीं करेंगे, पर वे समान और संयुक्त राष्ट्रीय जीवन एवं एक दृढ़ राष्ट्रीय राज्य का निर्माण करने के लिए सभी प्रयास करने को उत्सुक हैं। इसलिए उन्होंने प्रस्तावों को अस्वीकार कर दिया। मुसलिम लीग ने भी इन प्रस्तावों को अस्वीकार कर दिया, क्योंकि वे महसूस करते थे कि शामिल न होनेवाला प्रावधान बिलकुल भ्रामक था और पाकिस्तान के निर्माण को दूरस्थ संभावना के क्षेत्र में धकेल दिया गया था। क्रिप्स मिशन की विफलता से, जो स्पष्टतः अमेरिका के लोगों की भावनाओं को ब्रिटेन के पक्ष में निर्मित करने के लिए भारत आया था, गांधीजी की मनःस्थिति में एक स्पष्ट परिवर्तन आया। क्रिप्स प्रस्ताव को अस्वीकृत करते हुए गांधीजी ने इसे ‘‘एक डूबते हुए बैंक का पोस्टडेटेड चेक’’ बताया।4 क्रिप्स मिशन के प्रस्तावों से पूर्णतः निराश होकर तथा ऊबकर गांधीजी ने होरेस अलेक्जेंडर को 22 अप्रैल, 1942 को लिखा—‘‘सर स्टैफोर्ड क्रिप्स आए और चले गए। कितना अच्छा होता, यदि वे इस दुःखमय मिशन के साथ न आए होते। कम-से-कम उन्हें तो जवाहरलाल की इच्छाओं को जाने बगैर नहीं ही आना चाहिए था। इस संकटपूर्ण समय में ब्रिटिश सरकार कैसे ऐसा व्यवहार कर सकती है, जैसाकि उन्होंने किया है? प्रमुख पार्टियों से विचार-विमर्श किए बिना ही उन्होंने प्रस्तावों को क्यों प्रेषित किया? एक भी पार्टी संतुष्ट नहीं थी। सभी को खुश करने की कोशिश में प्रस्तावों ने किसी को भी संतुष्ट नहीं किया।...’’5 ‘‘मैंने उनसे खुलकर बातचीत की, लेकिन एक मित्र की तरह।... मैंने कुछ सुझाव भी दिए, किंतु उन सबका कोई उपयोग नहीं किया गया। यथारीति वे लोग व्यावहारिक नहीं थे। मैं जाना नहीं चाहता था। सभी युद्धों का विरोधी होने के कारण मेरे पास कहने के लिए कुछ नहीं था। कार्यकारिणी समिति से पूरी बातचीत के दौरान मैं उपस्थित नहीं था। मैं हट गया था। परिणाम आप जानते हैं। यह होना ही था। इन सबसे एक मन-मुटाव उत्पन्न हो गया है।’’

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